अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: बड़े नेताओं का आचरण और चुनाव आयोग

By अभय कुमार दुबे | Published: May 9, 2019 07:03 AM2019-05-09T07:03:55+5:302019-05-09T07:03:55+5:30

आखिर प्रधानमंत्री पद का किरदार क्या है? क्या वह एक चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं है? क्या वह एक ऐसा राजा है जो स्वयं नियम बनाता है और खुद को नियमों से ऊपर रखता है?

election commission is not playing a fair role in terms of big leaders | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: बड़े नेताओं का आचरण और चुनाव आयोग

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: बड़े नेताओं का आचरण और चुनाव आयोग

सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में सबसे कठिन परीक्षा देनी पड़ रही है हमारे चुनाव आयोग को. उसे प्रतिदिन फैसला करना पड़ रहा है कि कौन चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन कर रहा है, और कौन नहीं. यह मुश्किल उस समय और बढ़ जाती है जब आयोग को देश की बड़ी से बड़ी हस्तियों के आचरण को कसौटियों पर कसना पड़ता है.

ऐसे में अगर स्वयं चुनाव आयोग के भीतर मतभेद हो जाए तो हालात और संगीन हो सकते हैं. दुर्भाग्य से आयोग इस समय इसी तरह की परिस्थितियों का सामना कर रहा है. 

भारत का चुनाव आयोग विश्व-प्रसिद्ध ही नहीं, सारी दुनिया में प्रतिष्ठित है. वह चुनाव कराने के मामले में विकसित देशों को भी राय देने की स्थिति में रहता है. कहीं भी जाइए, अगर चुनाव प्रक्रिया पर कोई अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी हो रही हो, भारत के चुनावी अनुभव का संदर्भ सभी की जुबान पर रहता है.

जिन देशों में नया-नया चुनावी लोकतंत्र आता है, वहां से तो हमारे आयोग को पहली बार नमूने के चुनाव कराने का न्यौता भी मिलता रहा है. आयोग भी अपनी इस बढ़ी हुई प्रतिष्ठा में योगदान करने के लिए शोध-संस्थानों द्वारा तरह-तरह के अध्ययन कराता रहता है ताकि मतदाताओं के मन में झांका जा सके और उस प्रक्रिया में चुनाव को और समृद्ध करने में सफलता प्राप्त हो.

इस संस्था का ढांचा भी लोकतांत्रिक किस्म का है. किसी एक व्यक्ति के हाथों में पूरे अधिकार देने के बजाय तीन चुनाव आयुक्तों का प्रावधान किया गया है जिनमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त होता है. कानून कहता है कि इन तीनों आयुक्तों को सारे फैसले आपसी सहमति से लेने की प्राथमिकता पर अमल करना चाहिए, लेकिन अगर उनके बीच सहमति कायम न हो पाए तो बहुमत का फैसला मान्य होगा. 

किसी प्रश्न पर यदाकदा आयोग को बहुमत का आसरा लेना पड़े, तो बात समझ में आती है. लेकिन अगर बार-बार ऐसा हो तो वह सूरत संकट की तरफ इशारा करती है. पिछले कुछ दिनों में आयोग ने कई मामलों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतों पर जो फैसले दिए हैं उनमें कुछ ऐसी ही स्थिति बनी है.

ऐसे पांच मामले हैं जिनमें आयोग आम सहमति से काम नहीं कर पाया. एक चुनाव आयुक्त (अशोक लवासा) ने अपनी असहमति दर्ज कराई और मोदी-शाह को ‘क्लीन चिट’ देने का विरोध किया. तीन मामले ऐसे भी हैं जिनमें चुनाव आयुक्तों के बीच सहमति रही.

चूंकि आयोग के भीतरी कामकाज में इस तरह के मतभेद लगातार पैदा हो रहे हैं, इसलिए यह माना जा सकता है कि चुनाव खत्म होने के बाद हमारी इस लब्ध-प्रतिष्ठ संस्था की साख बहस का विषय बन जाएगी. 

एक तर्क के मुताबिक अगर पिछले सभी चुनावों का अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि चुनाव आयोग प्रधानमंत्री के मामले में कोई दंडात्मक कदम उठाने से परहेज करता रहा है. यह एक ‘ग्रे एरिया’ जरूर है, लेकिन प्रधानमंत्री का लिहाज करने की यह एक परंपरा बन गई है.

प्रश्न यह है कि क्या इस रवैये को एक स्वागतयोग्य रिवाज माना जा सकता है? आखिर चुनाव आयोग का कर्तव्य क्या है? उसका काम है चुनाव के समय प्रत्येक राजनीतिक शक्ति को प्रतियोगिता का समान धरातल उपलब्ध कराना. अगर आयोग प्रधानमंत्री को चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन करने की छूट देता नजर आएगा तो वह अपने इस कर्तव्य का पालन कैसे कर पाएगा?

आखिर प्रधानमंत्री पद का किरदार क्या है? क्या वह एक चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं है? क्या वह एक ऐसा राजा है जो स्वयं नियम बनाता है और खुद को नियमों से ऊपर रखता है? चुनाव आयोग निचले और मंझोले स्तर के नेताओं पर बिना किसी दिक्कत के एक से तीन दिन तक चुनाव प्रचार करने का प्रतिबंध लगा देता है. यह प्रतिबंध सर्वोच्च स्तर के नेताओं पर वह क्यों नहीं लगा सकता?

मेरा तो मानना यह है कि प्रधानमंत्री के पहली नजर में आपत्तिजनक लगने वाले कई वक्तव्यों को छूट देने का परिणाम यह भी हो सकता है कि आयोग निष्पक्ष लगने की कोशिश में इस तरह की रियायत विपक्ष के बड़े नेताओं को भी देता नजर आने लग सकता है. ऐसा होता कुछ-कुछ दिख भी रहा है. 

कोई संस्था जैसे ही क्रियाविधि संबंधी संहिता से कतराने की कोशिश करती है, वह ढलान से फिसलते हुए दिखने लगती है. आयोग की प्रतिष्ठा अभी तक बरकरार है. इसे तभी कायम रखा जा सकता है जब आयोग यह दिखाए कि वह वास्तव में एक संवैधानिक प्राधिकार है.

मराठा साम्राज्य के न्यायविद रामशास्त्री का उदाहरण हमें याद रखना चाहिए. उनका नाम सैकड़ों वर्ष बाद भी इसीलिए श्रद्धा के साथ लिया जाता है कि उन्होंने पंत प्रधान या पेशवा तक को सजा दे दी थी. रामशास्त्री को अपनी प्रतिष्ठा के चलते दूसरी रियासतों में इंसाफ करने के लिए बुलाया जाता था.

ठीक उसी तरह जैसे भारत के चुनाव आयोग को दूसरे देश राय-मशविरे से लेकर चुनाव करने तक का निमंत्रण देते हैं. चुनाव आयुक्त का पद सर्वोच्च है और इसके बाद अधिकारी गण रिटायर ही हो जाते हैं. वे चाहें तो अपना नाम रामशास्त्री की तरह इतिहास में लिखा सकते हैं.

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