संपादकीय: निजता में हद से ज्यादा हस्तक्षेप उचित नहीं

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 23, 2018 07:32 AM2018-12-23T07:32:42+5:302018-12-23T07:32:42+5:30

सवाल यह है कि जब संदिग्ध लोगों पर निगरानी रखने के लिए पहले से ही कानून मौजूद है तो सरकार के नए फरमान का मतलब क्या है? 

Editorial: Much more interference is not appropriate in privacy | संपादकीय: निजता में हद से ज्यादा हस्तक्षेप उचित नहीं

संपादकीय: निजता में हद से ज्यादा हस्तक्षेप उचित नहीं

केंद्र सरकार द्वारा दस प्रमुख सरकारी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों को किसी भी व्यक्ति या संस्था के कम्प्यूटरों में मौजूद डाटा की जांच करने का अधिकार दिए जाने से नागरिकों का निजता का अधिकार खतरे में पड़ गया है. सरकार का तर्क है कि देश की सुरक्षा के लिए यह महत्वपूर्ण है. जहां तक देश की सुरक्षा का सवाल है, कोई भी नहीं चाहेगा कि इससे समझौता किया जाए. 

लेकिन क्या इसके लिए हर नागरिक की जासूसी करना जरूरी है? जिससे भी देश के लिए खतरा महसूस हो, इसके लिए सरकार से विशेष मंजूरी लेकर सुरक्षा एजेंसियां उसकी निगरानी कर सकती हैं. लेकिन पूरे देश को ही निगरानी के दायरे में रखना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता. विपक्षी दलों की यह आशंका गलत नहीं है कि सरकार इसके जरिए उनकी जासूसी कर सकती है. 

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री मोदी पर इस सकरुलर के जरिए देश को पुलिस राज्य में तब्दील करने का आरोप लगाया है. यहां तक कि भाजपा की सहयोगी शिवसेना ने भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि ऐसे नोटिफिकेशन जारी करने के बजाय मोदीजी को देश में आपात्काल की घोषणा कर देनी चाहिए. ऐसा नहीं है कि संदिग्ध व्यक्तियों पर निगरानी रखने के लिए कानून पहले नहीं था. करीब सौ साल पहले जब इंडियन टेलीग्राफ एक्ट बनाया गया था तो उसमें भी ऐसी व्यवस्था की गई थी कि तकनीक के जरिए आपराधिक गतिविधियों को अंजाम न दिया जा सके. 

उस कानून के अनुसार संदिग्ध लोगों की टेलीफोन पर की गई बातचीत की सुरक्षा एजेंसियां निगरानी करती थीं. इसके बाद जब तकनीकी प्रगति हुई और कम्प्यूटरों का जमाना आया तो वर्ष 2000 में संसद ने आईटी कानून बनाया, जिसमें कहा गया है कि अगर कोई राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती पेश कर रहा है और देश की अखंडता के खिलाफ काम कर रहा है तो सक्षम एजेंसियां उनके कम्प्यूटर और डेटा की निगरानी कर सकती हैं. सवाल यह है कि जब संदिग्ध लोगों पर निगरानी रखने के लिए पहले से ही कानून मौजूद है तो सरकार के नए फरमान का मतलब क्या है? 

अगर सरकार इसका दुरुपयोग करेगी और लोगों की निजी जानकारियों का चुनावों में लाभ लेने की कोशिश करेगी तो उसे कौन रोक पाएगा? अमेरिका में फेसबुक डाटा की चोरी के जरिए राष्ट्रपति चुनावों को जिस तरह से प्रभावित करने का प्रयास किया गया, वह अब कोई छिपी हुई बात नहीं है. लेकिन आज के नागरिक जागरूक हैं और उन पर निगरानी रखने का कोई प्रयास उल्टे सरकार पर ही भारी पड़ सकता है. इसलिए सरकार को अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए.

Web Title: Editorial: Much more interference is not appropriate in privacy

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