संपादकीय: सेना के पराक्रम पर वोट मांगना खोखली राजनीति

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 14, 2019 04:06 AM2019-04-14T04:06:09+5:302019-04-14T04:06:09+5:30

वर्तमान दौर में अपने राजनीतिक खोखलेपन को छुपाने के लिए जनता के बीच सेना के पराक्रम को कवच बनाकर वोटों की फसल काटने का जो दौर चल पड़ा है, वह सिर्फ निंदनीय ही नहीं, बल्कि भविष्य के लिए घातक भी है. 

Editorial: Hollow politics to beg vote on the bravery of the army | संपादकीय: सेना के पराक्रम पर वोट मांगना खोखली राजनीति

संपादकीय: सेना के पराक्रम पर वोट मांगना खोखली राजनीति

भाग्यशाली हैं कि हमारी सेना दुनिया की सबसे पराक्रमी, धर्म-निरपेक्ष और अराजनीतिक चरित्र वाली है. इसका श्रेय देश के नीति निर्धारकों और संविधान रचयिताओं को जाता है. उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि देश का सैन्यबल जन सेवा और सुरक्षा के प्रति समर्पित रहे. गणतंत्र की स्थापना के बाद से इस अहम सोच को बरकरार भी रखा गया. लेकिन, वर्तमान दौर में अपने राजनीतिक खोखलेपन को छुपाने के लिए जनता के बीच सेना के पराक्रम को कवच बनाकर वोटों की फसल काटने का जो दौर चल पड़ा है, वह सिर्फ निंदनीय ही नहीं, बल्कि भविष्य के लिए घातक भी है. 

‘राजनीति में सेना का उपयोग’ या ‘सेना में राजनीति का हस्तक्षेप’ दोनों परिस्थितियां लोकतंत्र के लिए खतरनाक हैं. 150 से अधिक सैन्य अफसरों के राष्ट्रपति को लिखे खत में व्यक्त चिंता का सबब भी यही है कि संविधान की उस धारणा को चोट पहुंचाई जा रही है, जिसकी बदौलत आज हम भारतीय गणतंत्र को लेकर गौरवान्वित महसूस करते हैं. सेना का राजनीतिक इस्तेमाल तो सन् 71 के निर्णायक युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी नहीं किया था. 

उस समय दुनिया के समर्थन के बगैर भारतीय सेना और मौजूदा नेतृत्व ने अदम्य साहस और दृढ़ इच्छाशक्ति के बूते न सिर्फ पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दिया, बल्कि एक नए मुल्क की इबारत लिख डाली. हालांकि बाद के चुनावों में मौजूदा नेतृत्व को इसका लाभ मिला. लेकिन सहज लाभ मिलना और सेना के पराक्रम को भुनाना दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है. गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अशिक्षा, हिंसा जैसे तमाम जरूरी मुद्दों को छोड़कर सेना के शौर्य की बदौलत राजनीति की गाड़ी खींचना साफ तौर पर राजनीतिक खोखलेपन का परिचायक है. 

परमाणु कार्यक्रम के प्रणोता महान वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से जुड़ा एक वाकया याद आता है, बच्चों से मुखातिब एक कार्यक्रम में उनसे पूछा गया कि देश का सबसे बड़ा दुश्मन कौन है? इसके जवाब में उन्होंने बच्चों से ही पूछ लिया कि आप बताइए? तो पारुल नाम की एक बच्ची ने जवाब दिया, ‘हमारा सबसे बड़ा दुश्मन गरीबी है.’ उस बच्ची की सोच को स्वयं राष्ट्रपति महोदय ने सराहा था.  अब भी हमारे देश में भूख से मौतें होती हैं, आधी आबादी आधे पेट सोती है, हम खुशहाली की सूची में कई पायदान लुढ़क गए हैं!

Web Title: Editorial: Hollow politics to beg vote on the bravery of the army