संपादकीय: आपसी छींटाकशी में मुद्दों से भटके चुनाव 

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 15, 2019 04:25 AM2019-04-15T04:25:28+5:302019-04-15T04:25:28+5:30

स्थ लोकतंत्र में सब कुछ जनता पर केंद्रित होता है इसीलिए उसे जनतंत्र और गणतंत्र भी कहा जाता है. मगर जब चुनावों में अधिकतर चीजें व्यक्ति केंद्रित हो जाएं तो आम आदमी क्या उम्मीद कर सकता है? 

Editorial: Elections in the separation of issues in mutual snoopgate | संपादकीय: आपसी छींटाकशी में मुद्दों से भटके चुनाव 

संपादकीय: आपसी छींटाकशी में मुद्दों से भटके चुनाव 

हर बार लोकसभा चुनाव आते ही उम्मीदों के समंदर में आम आदमी का गोता लगाना आश्चर्यजनक नहीं माना जा सकता है. लोकतंत्र में पांच साल बाद सरकार चुनने के अधिकार का किसी आशा से प्रयोग करना भी गलत नहीं कहा जा सकता है. मगर देश में 17वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनावों में मतदाता और प्रत्याशी के बीच चुनाव के बाद कोई रिश्ते बनते दिखाई नहीं दे रहे हैं. दोनों के बीच चुनाव का एक माह का संबंध वक्त के साथ टूटने के प्रबल आसार हैं. 

इसकी सीधी वजह राजनीतिक दलों का जनाकांक्षाओं से सरोकार न होना है. वे एक-दूसरे पर छींटाकशी को ही हथियार बनाए हुए हैं. वे आपस में ऊंच-नीच पैदा कर जनता को मुद्दों से भटका रहे हैं. यह स्थिति न केवल दु:खद ही है, बल्कि देश और लोकतंत्र के लिए घातक भी है. स्वस्थ लोकतंत्र में सब कुछ जनता पर केंद्रित होता है इसीलिए उसे जनतंत्र और गणतंत्र भी कहा जाता है. मगर जब चुनावों में अधिकतर चीजें व्यक्ति केंद्रित हो जाएं तो आम आदमी क्या उम्मीद कर सकता है? 

यह माना जाता रहा है कि आजादी के बाद की राजनीति में नेताओं का सरोकार आम लोगों से था. उनकी सादगी इस बात को दर्शाती थी कि वे आम लोगों के बीच के हैं, लेकिन जैसे-जैसे राजनीति में वीआईपी परंपरा शुरू हुई, नेताओं और जनता के बीच की दूरी बढ़ती चली गई. राजनीतिक मूल्य गायब हो गए. अब लोकसभा चुनाव सत्तारूढ़ और विपक्षी राजनीतिक दलों की कार्यशैलियों, उनकी सफलताओं-विफलताओं और भावी नीतियों-योजनाओं के इर्द-गिर्द होते हैं. भाजपा ने एक कदम आगे बढ़ाकर चुनाव को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पर केंद्रित करने की कोशिश की है. कुछ हद तक यही दिशा कांग्रेस की भी है. मगर देश की लोकतांत्रिक परंपरा और जनभावना इसके प्रतिकूल है. 

देश में लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद निर्वाचित सदस्य अपना नेता तय करते हैं. सरकार के मुखिया का चुनाव अमेरिका जैसे राष्ट्र में सीधे राष्ट्रपति के चुनाव से होता है. साफ है कि चुनावी अपेक्षाएं राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के आत्मकेंद्रित तथा आत्मअभिभूत होने से भटक गई हैं, जिससे खुद को श्रेष्ठ साबित करने में आपसी छींटाकशी के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है. ऐसे में जनता के मुद्दे तो कागजी हैं, जो समय के साथ पुराने हो जाएंगे किंतु अब वक्त समझदारी दिखाने का है. अगले पांच साल की तैयारी में बुद्धिमानी दिखाना जरूरी है, वर्ना एक पल की मूर्खता से पांच साल लंबी राह ताकना सबकी मजबूरी होगी. 

Web Title: Editorial: Elections in the separation of issues in mutual snoopgate