विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः देश की पंथ-निरपेक्ष पहचान को दांव पर न लगाएं
By विश्वनाथ सचदेव | Published: October 22, 2020 01:56 PM2020-10-22T13:56:57+5:302020-10-22T13:56:57+5:30
यह सही है कि स्वतंत्न भारत में भिन्न धर्म के मानने वालों में विवाह के उदाहरण कम हैं, पर जितने भी उदाहरण हैं, वे यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं कि ऐसा करना न केवल अपराध नहीं है, बल्कि एक समरस भारतीय समाज बनाने की दिशा में एक सकारात्मक पहल है.
एक हिंदू परिवार में मुस्लिम बहू अथवा मुस्लिम परिवार में हिंदू बहू का होना भले ही किसी को आपत्तिजनक लगता हो, पर वैधानिक और मानवीय, दोनों दृष्टियों से इस स्थिति को गलत ठहराना उचित नहीं कहा जा सकता. यह व्यक्ति का अधिकार है कि वह किस धर्म में विश्वास करे, इसलिए पूजा-अर्चना के उसके तौर-तरीके पर उंगली उठाना भी गलत है. ऐसे में जब सोने-चांदी के एक संस्थान द्वारा जारी किए गए विज्ञापन पर धार्मिक भावनाओं के आहत होने के नाम पर विरोध किया गया तो अनायास ही यह सवाल उछल कर सामने आ गया कि इस विरोध के पीछे आखिर कौन-सी मानसिकता काम कर रही है?
कथित आपत्तिजनक विज्ञापन में धार्मिक सौहाद्र्र का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए एक मुस्लिम परिवार में हिंदू बहू को दिखाया गया है जो अपनी मुसलमान सास से यह पूछ रही है कि उनके समाज में तो गोदभराई की रस्म होती नहीं है तो वे क्यों उसकी गोदभराई को विधि-विधान से मना रही हैं. पुत्नवधू की इस जिज्ञासा के उत्तर में सास कहती है कि बेटी की खुशी के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता. इस विज्ञापन में दो बातें स्पष्ट हैं; पहली तो यह कि विज्ञापन के पीछे दृष्टि भाईचारे वाली है और दूसरी यह कि बहू को बेटी की तरह मानने-रखने का संदेश दिया गया है. भला इसमें किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए?
पर हुई आपत्ति कुछ लोगों को, और परिणाम यह निकला कि धार्मिक सौहाद्र्र का संदेश देने वाला एक प्यारा-सा विज्ञापन धार्मिक कट्टरता का शिकार बन गया. आपत्ति यह थी कि मुस्लिम-परिवार में हिंदू पुत्न-वधू क्यों दिखाई गई. विवाह किसी भी व्यक्ति का वैयक्तिक मामला है, यह उसका संवैधानिक अधिकार है कि वह अपनी पसंद से शादी कर सके. यही नहीं, हमारा संविधान किसी भी व्यक्ति को कोई भी धर्म मानने और उसका प्रचार करने की अनुमति देता है. शर्त सिर्फ इतनी है कि यह निर्णय किसी दबाव में आकर न किया गया हो.
यह सही है कि स्वतंत्न भारत में भिन्न धर्म के मानने वालों में विवाह के उदाहरण कम हैं, पर जितने भी उदाहरण हैं, वे यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं कि ऐसा करना न केवल अपराध नहीं है, बल्कि एक समरस भारतीय समाज बनाने की दिशा में एक सकारात्मक पहल है. जिस गंगा-जमुनी सभ्यता और संस्कृति की दुहाई हमारे पूर्वज देते रहे हैं, वह भी आपसी संबंधों के इन उदाहरणों में छलक-छलक पड़ती है. इस तरह के समाचार अक्सर देखने-पढ़ने को मिल जाते हैं.
सर्व धर्म समभाव में विश्वास करने वाले और दुनिया को वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देने वाले भारत में धर्म की रक्षा के नाम पर धार्मिक कट्टरता की भावना के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए. अपने धर्म में आस्था और अपने रीति-रिवाज मानने-मनाने की आजादी हमें हमारा संविधान देता है. हमारे संविधान के आमुख में पंथ-निरपेक्षता को रेखांकित किया गया है. यह कहना भी उचित नहीं है कि यह शब्द ‘सेक्युलर’ संविधान में बाद में जोड़ा गया. संविधान-सभा में इसको लेकर लंबी बहस हुई थी और तब सब बड़े नेताओं ने कहा था कि पंथ-निरपेक्षता तो हमारी पहचान है, हमारे विश्वास का आधार है, यह.
जिन विविधताओं में एकता की दुहाई हम देते हैं, उनमें वह धार्मिक विविधता भी है जो हमारे भारत को एक विशिष्ट स्थिति प्रदान करती है. बहुभाषी, बहुधर्मी, बहुजातीय भारत दुनिया के सामने पंथ-निरपेक्षता का उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है. यह हमारी कमजोरी नहीं, ताकत है. जब इस ताकत को कमजोर बनाने की कोशिश होती है तो दु:ख होना ही चाहिए.
धार्मिक सौहाद्र्र का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले किसी विज्ञापन को लेकर जब विवाद होता है तो उस हर भारतीय को दु:ख होना चाहिए जो इस देश के संविधान में विश्वास रखता है. यह दु:ख तब और बढ़ जाता है जब संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाले, संविधान के नाम पर पद की शपथ लेने वाले संविधान-विरोधी काम करते हुए हिचकते नहीं. धार्मिक सौहाद्र्र और सांप्रदायिक एकता हमारे अस्तित्व की एक शर्त है. इस कसौटी पर हमें हमेशा खरा उतरना है. जरूरी है हर संभव-तरीके से देश की सेक्युलर पहचान, धार्मिक सौहाद्र्र की रक्षा की जाए.