विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः कपड़ों पर नहीं, देश की नीतियों पर हो चर्चा

By विश्वनाथ सचदेव | Published: July 10, 2020 06:01 AM2020-07-10T06:01:31+5:302020-07-10T06:01:31+5:30

आज प्रधानमंत्नी के कपड़ों की बजाय, उनके कहे-किए पर ध्यान देने की आवश्यकता है. प्रधानमंत्नी ने आत्म-निर्भरता की बात कही है और उन्होंने देश के अस्सी करोड़ जरूरतमंदों को आने वाले चार महीनों के लिए मुफ्त अनाज देने की घोषणा भी की है. दोनों ही बातें महत्वपूर्ण हैं और देश को इस संदर्भ में गंभीरता से सोचना-समझना चाहिए.

Discussion on country's policies, not on clothes, narendra modi bjp congress, rahul gandhi | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः कपड़ों पर नहीं, देश की नीतियों पर हो चर्चा

आज प्रधानमंत्नी के कपड़ों की बजाय, उनके कहे-किए पर ध्यान देने की आवश्यकता है. (फाइल फोटो)

देश के पहले प्रधानमंत्नी जवाहरलाल नेहरू ने एक बार अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगी लाल बहादुर शास्त्नी को एक विवाद का निपटारा करने के लिए कश्मीर भेजा था. यह सर्दियों के मौसम की बात है. नेहरू को पता चला कि शास्त्नीजी के पास ठंड से बचाव के पर्याप्त कपड़े भी नहीं हैं. कहते हैं, तब नेहरूजी ने अपना ओवरकोट शास्त्नीजी के पास भेजा था और वही पहनकर शास्त्नीजी श्रीनगर गए थे. शास्त्नीजी के कपड़ों से ही जुड़ी एक और घटना का जिक्र भी उनके जीवनीकारों ने किया है. यह घटना तब की है जब वे देश के प्रधानमंत्नी बन चुके थे. उनका खादी का एक कुर्ता कुछ फट गया था. 

उन्होंने अपनी पत्नी ललिताजी से कहा, इसे संभाल कर रख लें, सर्दियों में कोट के नीचे पहन लेंगे! यह दोनों बातें कितनी सही हैं, पता नहीं, पर इन और ऐसी बातों के लिए इस देश की जनता ने शास्त्नीजी को हमेशा सराहा है. उनकी सादगी के ढेरों किस्से हैं, जो यह भी बताते हैं कि सादगी हमारी संस्कृति की पहचान है. इसी सादगी के चलते महात्मा गांधी ने गोलमेज कॉन्फ्रेंस के दौरान सदन में अपनी धोती और चद्दर छोड़कर ‘कुछ बेहतर’ पहनने से इनकार कर दिया था. उन्होंने सवाल करने वाले पत्नकारों से हंसते हुए कहा था, ‘आपके सम्राट ने जो कपड़े पहन रखे हैं, हम दोनों के लिए पर्याप्त हैं.’

नेताओं के कपड़ों से जुड़े यह किस्से आज फेसबुक की ‘कृपा’ से अचानक याद आ रहे हैं. पिछले कुछ दिनों से फेसबुक में हमारे प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी के वस्त्नों पर टिप्पणियां हो रही हैं. कुछ लोगों को शिकायत है कि हाल की लद्दाख यात्ना के दौरान उन्होंने एक दिन में चार बार कपड़े बदलना जरूरी क्यों समझा? वैसे देखा जाए तो जरूरत पड़ने पर चार बार या इससे भी ज्यादा बार कपड़े बदलना गलत नहीं कहा जा सकता. वैयक्तिक सोच से भी कपड़ों का रिश्ता होता है. इस संबंध में आवश्यकता और पसंद को दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए. इस संदर्भ में विपक्ष द्वारा की जाने वाली आलोचना को भी कुछ खास महत्व नहीं दिया जाना चाहिए. पर यह अवश्य महत्व की बात है कि देश की जनता का एक वर्ग प्रधानमंत्नी के कपड़ों पर टीका-टिप्पणी कर रहा है. वस्तुत: चिंता देश के संकट को लेकर होनी चाहिए.

आज देश एक संकट से गुजर रहा है. कोरोना महामारी से मुकाबले में लगा है देश. उधर चीन ने हमारी सीमाओं में घुसपैठ मचा रखी है. नेपाल भी आंखें तरेर रहा है. देश के भीतर आर्थिक मंदी की स्थिति है. लॉकडाउन के चलते समूचे आर्थिक व्यवहार में एक जड़ता-सी आ गई है. बेरोजगारी पंख फैला रही है. लोगों की नौकरियां छिन रही हैं. रोजगार छिन रहे हैं. वेतन में कटौतियां हो रही हैं. ऐसे में सरकार और जनता, दोनों का ध्यान इस समूचे संकट का मुकाबला करने की ओर होना चाहिए. ऐसी स्थितियों में नेताओं के कपड़ों की ओर ध्यान जाए, इससे जुड़े उनके व्यवहार को लेकर टीका-टिप्पणी हो, यह शोभनीय भी नहीं लगता. इस संदर्भ में हर पक्ष को सावधानी बरतने की आवश्यकता है.  

आज प्रधानमंत्नी के कपड़ों की बजाय, उनके कहे-किए पर ध्यान देने की आवश्यकता है. प्रधानमंत्नी ने आत्म-निर्भरता की बात कही है और उन्होंने देश के अस्सी करोड़ जरूरतमंदों को आने वाले चार महीनों के लिए मुफ्त अनाज देने की घोषणा भी की है. दोनों ही बातें महत्वपूर्ण हैं और देश को इस संदर्भ में गंभीरता से सोचना-समझना चाहिए. जहां तक आत्म-निर्भरता का सवाल है, यह पहली बार नहीं है जब यह बात की गई है. देश के पहले प्रधानमंत्नी से लेकर अब तक के हर प्रधानमंत्नी ने अपने-अपने समय में इस दिशा में पहल करने का आह्वान किया है. आजादी से पहले भी महात्मा गांधी ने देश को आत्मनिर्भर बनाने की आवश्यकता को रेखांकित किया था और उन्होंने इस दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता भी बताया था. यह दुर्भाग्य ही है कि आजादी के सत्तर सालों में हम इस बारे में वह सब नहीं कर पाए, जो करना चाहिए था.

यह बात सही है कि इस बीच विश्व भर में स्थितियां बदली हैं. वैश्वीकरण हमारे समय की एक ऐसी सच्चाई है जो दुनिया भर की सोच और व्यवहार को प्रभावित कर रही है. इसलिए आत्म-निर्भरता के संदर्भ में भी हमें इस दृष्टि से विचार करके आगे बढ़ना होगा. और यह काम सिर्फ नारों से नहीं हो सकता, ठोस नीतियों और उनके ईमानदार क्रि यान्वयन पर ही इसकी सफलता निर्भर करती है. गांधीजी ने जब आत्म-निर्भरता और स्वावलंबन का नारा दिया था तो साथ ही ग्रामोद्योग और खादी का एक दर्शन भी हमें समझाया था. छह लाख से ज्यादा गांवों वाला यह भारत स्मार्ट सिटी और महानगरों के कथित विकास से न तो विकास कर सकता है और न ही आत्म-निर्भर बन सकता है. 

ग्रामीण भारत के संपूर्ण विकास से ही भारत का विकास संभव है. इसे लेकर इरादों की घोषणाएं तो बहुत बार हुई हैं, पर क्रियान्विति में हम लगातार चूकते रहे हैं. इसी का परिणाम है कि गांवों  के करोड़ों युवा हमेशा शहरों की तरफ मुड़ते रहे हैं. इस कोरोना-काल में जिस तरह से मेहनतकश भारतीय अपने गांव लौटने के लिए विवश हुए हैं,  वह हमारी नीतियों की विफलता की भी एक कहानी सुनाता है. और अब जिस तरह से उन्हें फिर से शहरों में वापस बुलाने की कोशिशें हो रही हैं, वह भी यही दर्शाता है कि आज भी हमारे पास गांवों में रोजगार को लेकर कोई नीति नहीं है.

Web Title: Discussion on country's policies, not on clothes, narendra modi bjp congress, rahul gandhi

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