अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: चुनाव में लोकतंत्र मंजिल है या सिर्फ जरिया?

By अभय कुमार दुबे | Published: May 22, 2019 07:07 AM2019-05-22T07:07:55+5:302019-05-22T07:07:55+5:30

एक तरफ हमारे लोकतंत्र का यह काला पक्ष हमारी आंखों में घूम रहा है, दूसरी तरफ उसके उज्‍जवल पक्षों पर भी निगाह डाली जानी चाहिए. इन्हीं ममता बनर्जी, जो भाजपा के हमले से अपनी सत्ता बचाने के लिए दीवानी हुई जा रही हैं, को अपने 33 फीसदी टिकट स्त्रियों को देने का श्रेय जाता है. यही काम ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के सर्वेसर्वा नवीन पटनायक ने भी किया है.

Democracy is really matter in Lok Sabha Elections or just the way in the election? | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: चुनाव में लोकतंत्र मंजिल है या सिर्फ जरिया?

प्रतीकात्मक तस्वीर

Highlightsतुर्की के राष्ट्रपति उदरेगान का एक कथन यहां याद आता है कि लोकतंत्र एक ऐसी ट्रेन है जिससे आप मंजिल पर पहुंचने के बाद उतर जाते हैं. जानकारों का कहना है कि अगर एक्जिट पोल में मोदी के नेतृत्व वाला मोर्चा (राजग) तीन सौ के करीब सीटें जीतता नजर आया तो बाजार कम-से-कम एक से डेढ़ फीसदी ऊंचा खुलेगा, और अगर यह मोर्चा ढाई सौ से कम सीटें जीतता नजर आया तो शेयर नीचे चले जाएंगे.

बहुत कम लोगों को पता होगा कि भारत दुनिया भर में लोकतंत्र का विस्तार करने के लिए काफी संसाधन खर्च करता है. पूर्व राजदूत विष्णु प्रकाश द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 2015 के बाद से भारत संयुक्त राष्ट्र के लोकतंत्र कोष में तीन करोड़ बीस लाख डॉलर का योगदान कर चुका है. और तो और, दुनिया में एक ‘कम्युनिटी ऑफ डेमोक्रेसी’ नामक संगठन भी है जिसके संस्थापक सदस्यों में भारत भी शामिल है. इस जानकारी के साथ जोड़ कर हमें एक्जिट पोल के अड़तालीस घंटे पहले स्टॉक एक्सचेंज में करीब एक प्रतिशत का उछाल आने की घटना पर गौर करना चाहिए.

जानकारों का कहना है कि अगर एक्जिट पोल में मोदी के नेतृत्व वाला मोर्चा (राजग) तीन सौ के करीब सीटें जीतता नजर आया तो बाजार कम-से-कम एक से डेढ़ फीसदी ऊंचा खुलेगा, और अगर यह मोर्चा ढाई सौ से कम सीटें जीतता नजर आया तो शेयर नीचे चले जाएंगे. हम जानते हैं कि सट्टा बाजार संभावनाओं और अंदेशों का खेल है. वह राजनीतिक स्थिरता और निरंतरता चाहता है. मुङो याद है कि 2009 में जैसे-जैसे चुनाव नतीजे कांग्रेस के नेतृत्व वाले मोर्चे (संप्रग) के पक्ष में आते गए, सट्टा बाजार नई ऊंचाइयां छूता चला गया था. जो उम्मीद तब उसे सोनिया और मनमोहन की जोड़ी से थी, आज वही उम्मीद उसे मोदी और शाह की जोड़ी से है. कभी यही उम्मीद आडवाणी-अटल की जोड़ी से थी. जाहिर है कि पार्टियां और जोड़ियां वक्त के साथ बदलती रहती हैं, इसलिए यह हमारे लिए चिंता का सबब नहीं होना चाहिए. खास बात यह है कि भारतीय लोकतंत्र से निकलने वाली उम्मीदों के आसरे केवल स्टॉक एक्सचेंज ही नहीं, दुनिया के दूसरे देश भी हैं. यहीं प्रश्न उठता है कि स्टॉक एक्सचेंज और दुनिया के अन्य देश भारतीय लोकतंत्र से जो उम्मीदें रखते हैं, क्या यह लोकतंत्र वास्तव में उस पर खरा उतर रहा है?

 
चुनाव प्रचार खत्म होने की घंटी बजने से पहले बंगाल में जो कुछ हुआ है, वह उन आशाओं पर एक तरह का तुषारापात कर देता है जिनकी ऊपर चर्चा की गई है. ममता बनर्जी संयम और मर्यादा छोड़ कर खुले आम मोदी-शाह को ‘दो गुंडों’ की संज्ञा देती नजर आईं. हम सबने देखा है कि ममता की राजनीतिक प्रौद्योगिकी किस किस्म की है. पहले उनकी पार्टी आतंक बरपा करती है, और फिर भी अगर विपक्षी उम्मीदवार जीत जाता है तो उसको धमका कर या फुसला कर अपने पक्ष में दलबदल करवा लिया जाता है. पंचायत से विधानसभा के स्तर तक वे ऐसा कई बार करके चुनाव-प्रक्रिया को बेमानी बना चुकी हैं. लेकिन इस बार उनका मुकाबला भाजपा से है जिसके जीते हुए उम्मीदवार उनके साथ किसी कीमत पर नहीं जाने वाले. उधर अमित शाह के रोड शो को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कि वह किसी हिंदू त्यौहार का जुलूस हो. यानी लोकतांत्रिक प्रतियोगिता में यह नौबत आ चुकी है कि चुनाव जीतने और सत्ता की निरंतरता के लिए नेताओं और पार्टयिों ने हर अलोकतांत्रिक हथकंडे को अपनाने की छूट ले रखी है.  


एक तरफ हमारे लोकतंत्र का यह काला पक्ष हमारी आंखों में घूम रहा है, दूसरी तरफ उसके उज्‍जवल पक्षों पर भी निगाह डाली जानी चाहिए. इन्हीं ममता बनर्जी, जो भाजपा के हमले से अपनी सत्ता बचाने के लिए दीवानी हुई जा रही हैं, को अपने 33 फीसदी टिकट स्त्रियों को देने का श्रेय जाता है. यही काम ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजू जनता दल के सर्वेसर्वा नवीन पटनायक ने भी किया है. जिस देश की विधायिकाएं स्त्रियों को माकूल नुमाइंदगी देने में नाकाम रही हैं व जहां स्त्री आरक्षण विधेयक लंबे अरसे से लटका है, वहां अगर दो बड़े क्षेत्रीय नेता यह पहलकदमी लेते हैं तो उसे एक ऐतिहासिक कदम के रूप में देखा जाना चाहिए.

 मुझे याद पड़ता है कि चुनावी मुहिम शुरू होते समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सड़क-यात्र के दौरान मैंने अपने तीन समाज-वैज्ञानिक सहयोगियों (तीनों ही राजनीति-शास्त्री) से पूछा था कि उनकी निगाह में भारतीय लोकतंत्र इस समय किस स्थिति में है? उन तीनों का कहना यह था कि लोकतंत्र की मूल्यवत्ता समृद्ध होने के बजाय क्षय की तरफ जाती हुई दिख रही है. लोकतंत्र से उम्मीद की जाती है कि वह सभी तरह की राजनीतिक शक्तियों को प्रतियोगिता का समान धरातल मुहैया कराएगा. लेकिन इस बार ऐसा होता हुआ नहीं दिखा. मसलन, बंगाल में झगड़ा तृणमूल और भाजपा में था लेकिन चुनाव आयोग ने दस घंटे पहले ही प्रचार बंद करवा दिया, और इस तरह उन पार्टियों (कांग्रेस व माकपा) को भी सजा दे दी जिनकी उस हिंसा या झगड़े में कोई भूमिका नहीं थी. 


तुर्की के राष्ट्रपति उदरेगान का एक कथन यहां याद आता है कि लोकतंत्र एक ऐसी ट्रेन है जिससे आप मंजिल पर पहुंचने के बाद उतर जाते हैं. यानी उनके लिए लोकतंत्र अपने आप में एक मंजिल न हो कर किसी मंजिल तक पहुंचने का एक जरिया भर है. अगर इस प्रेक्षण में दम है, तो हमें लोकतांत्रिक प्रतियोगिता में भिड़े हुए किरदारों और पार्टियों की लोकतांत्रिक निष्ठाओं के बजाय उन मंजिलों को समझने की कोशिश करनी होगी जो उन कथित निष्ठाओं की आड़ में कहीं छिपी हुई हैं.

Web Title: Democracy is really matter in Lok Sabha Elections or just the way in the election?