पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः इस लोकतंत्र में जनता का स्थान है कहां?

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: December 10, 2019 06:58 AM2019-12-10T06:58:50+5:302019-12-10T06:58:50+5:30

अब तो लोगों के अस्तित्व से खुला खिलावाड़ शुरू हो चुका है और जन आक्रोश न पनपे व संकट राजनीति पर न आए इसके लिए गाहे-बगाहे सभी नेता पार्टीलाइन छोड़ कर एक भी हो जाते हैं और जनता की परेशानियों के बीच जायके का मजा भी लेते हैं. तो आपको इसके लिए हाल ही की एक फोटो देखनी पड़ेगी.

delhi fire accident: where is the public place in this democracy | पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः इस लोकतंत्र में जनता का स्थान है कहां?

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पुरानी दिल्ली में 43 मौतों का जिम्मेदार कोई नहीं है. हां, इस बार मौत की कीमत ज्यादा लगानी पड़ गई क्योंकि सौ दिन बाद ही तो दिल्ली में चुनाव हैं. केजरीवाल ने तय किया कि प्रति मौत 10 लाख की राहत देंगे. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने तय किया कि प्रति मौत 5 लाख रुपए की राहत देंगे. तो प्रधानमंत्नी मोदी ने तय किया कि राहत कोष से प्रति मौत 2 लाख रुपए देंगे. फिर अगले बरस बिहार में भी तो चुनाव है और नीतीश कुमार बार-बार दिल्ली में भी बिहारियों के बीच अपने उम्मीदवार उतारने से परहेज नहीं करते तो उन्होंने भी 43 मौत पर प्रति बिहारी 2 लाख रु पए राहत देने का ऐलान कर दिया. तो पैसा जनता का. मौत जनता की. और जिम्मेदार कोई नहीं. तो फिर इस लोकतंत्न में हम आप हैं कहां?

अब तो लोगों के अस्तित्व से खुला खिलावाड़ शुरू हो चुका है और जन आक्रोश न पनपे व संकट राजनीति पर न आए इसके लिए गाहे-बगाहे सभी नेता पार्टीलाइन छोड़ कर एक भी हो जाते हैं और जनता की परेशानियों के बीच जायके का मजा भी लेते हैं. तो आपको इसके लिए हाल ही की एक फोटो देखनी पड़ेगी. तस्वीर में खाने की गोल मेज पर चारों तरफ सात नेता बैठे थे. जिसमें देश के गृह मंत्नी अमित शाह, रक्षा मंत्नी राजनाथ सिंह, पूर्व प्रधानमंत्नी मनमोहन सिंह, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार, कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद और लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला के अलावा मेजबान उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू थे.

और लोकतंत्न के इस खेल के भीतरी सच को समझने की स्थिति में कभी जनता को लाया नहीं गया कि आखिर राजनीतिक सत्ता सिंगल पार्टी के तौर पर ही क्यों रहती है. एक वक्त कांग्रेस की सत्ता थी तो बीजेपी के होने का कोई मतलब नहीं था. और अब बीजेपी की सत्ता है तो कांग्रेस के होने का कोई मतलब नहीं है. यानी एक वक्त कांग्रेस की सत्ता थी. अब बीजेपी की सत्ता है. विचारधारा तो सत्ता है लेकिन नीतियां भी कैसे 360 डिग्री में घूम चुकी हैं ये इससे भी समझ सकते हैं कि कभी कांग्रेस कारपोरेट के साथ खड़ी रही तो अब भाजपा का कारपोरेटीकरण हो चुका है और कांग्रेस उन मुद्दों को साथ ले चुकी है जिसे विपक्ष में रहते भाजपा उठाती थी. 

मसलन किसान-मजदूर-देसी इकोनॉमी का सवाल. तो फिर सत्ता परिवर्तन अगर नागरिकों के हालात नहीं बदलते तो सत्ता की नीतियों से जनता का गुस्सा विपक्ष को सत्ता तक पहुंचा देता है. और राजनीतिक दलों की विचारधारा सत्ता पाने के लिए ही है तो फिर अलग-अलग मुद्दों पर खून खौला देने वाली संसद या सड़क की बहस के बाद खाने की टेबल पर एक साथ बैठने की तस्वीर संदेश क्या देती होगी.

Web Title: delhi fire accident: where is the public place in this democracy

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