स्वास्थ्य सेवा जनता का संवैधानिक अधिकार, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Published: April 28, 2021 02:27 PM2021-04-28T14:27:21+5:302021-04-28T14:28:09+5:30
देश में कोरोना वायरस संक्रमण के एक दिन में रिकॉर्ड 3,60,960 नये मामले सामने आए हैं जिसके बाद संक्रमण के कुल मामले 1,79,9,267 हो गए हैं.
सारे देश में कोरोना से कोहराम मचा हुआ है. महामारी काबू में नहीं आ रही है. लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे हैं.
अस्पतालों में बिस्तर नहीं मिल रहे और श्मशानों में चिताएं जलाने के लिए जगह उपलब्ध नहीं है. मौतों के असली आंकड़े छिपाए जा रहे हैं. डॉक्टर कोरोना के नकली टीके बेचते पकड़े जा रहे हैं और मेडिकल कॉलेज के लॉकर से इंजेक्शन चोरी हो रहे हैं. तिपहिया वाहनों में आक्सीजन सिलेंडर लगाए मरीज भटक रहे हैं.
जब मंत्रियों से लेकर राज्यपालों तक को एक-एक बिस्तर के लिए जुगाड़ या सिफारिशों का सहारा लेना पड़ रहा हो तो स्थिति की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है. यह ठीक है कि ऐसी हालत पहले कभी नहीं बनी इसलिए सरकारी तंत्र तैयार नहीं था, मगर बड़ी से बड़ी तैयारियों के लिए भी एक साल बहुत होता है. अगर मध्य प्रदेश में सरकार गिराने के लिए मशीनरी और सियासी ताकत झोंकी जा सकती है, पांच प्रदेशों के चुनाव कराए जा सकते हैं और हरिद्वार में कुंभ का आयोजन हो सकता है तो कोरोना से लड़ने के लिए वह संकल्प और जिद क्यों नहीं दिखाई दी?
रैलियों में भारी भीड़ देखकर गदगद होते राजनेताओं का ध्यान इस पर नहीं गया कि जिन मतदाताओं को वहां लाया गया है, वे संक्रामक महामारी से सुरक्षित हैं या नहीं. यदि भारतीय लोकतंत्र में चुनाव आवश्यक हैं तो संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा भी चुनी हुई सरकारों का कानूनी धर्म है. हर जनप्रतिनिधि संविधान की शपथ लेकर ही पद संभालता है.
लेकिन समूचे कोरोना काल में इस शपथ को हमने तार-तार बिखरते देखा है. केंद्र से लेकर प्रदेशों की सरकारें दबी जबान से मान रही हैं कि इस मामले में सिस्टम की नाकामी उजागर हुई है. यह सिस्टम छह-सात महीनों में कैसे धराशायी हुआ - इसका विश्लेषण करके समाधान करने पर अभी भी हुकूमतों का ध्यान नहीं है.
क्या यह किसी को ध्यान दिलाने की जरूरत है कि हमारा संविधान भारतीय नागरिकों के स्वास्थ्य के साथ इस तरह लापरवाही करने की अनुमति किसी सरकार को नहीं देता. अनुच्छेद-21 सीधे-सीधे हिंदुस्तानी नागरिकों के जीवन का दायित्व सरकार पर डालता है. इसमें हर व्यक्ति की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करना सरकार का काम माना गया है.
असल में यह अनुच्छेद मानव अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के उस घोषणापत्र को स्वीकार करते हुए जोड़ा गया था, जो दस दिसंबर 1948 को जारी किया गया था. यदि आम आदमी को वक्त पर इलाज नहीं मिलता तो यह उसके जीने के अधिकार पर अतिक्रमण माना गया था.
कोरोना काल में जिस ढंग से करोड़ों नागरिकों का पलायन हुआ और वे क्रूर व अमानवीय हालात में अपनी जान गंवाने को मजबूर हुए, वह भयावह है. करीब तैंतीस साल पहले शंकर बनर्जी बनाम दुर्गापुर संयंत्र वाले मामले में न्यायपालिका ने साफ-साफ कहा था कि दरअसल किसी की हालत गंभीर हो और उसे समय से इलाज न मिले तो यह फांसी पर लटकाने से भी ज्यादा क्रूर है.
यही नहीं, राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी अनुच्छेद 47 के हवाले से कहा गया है कि लोगों के स्वास्थ्य सुधार को राज्य प्राथमिक कर्तव्य मानेगा. पर हम देखते हैं कि शनै: शनै: राज्य ग्रामीण और अंदरूनी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर बनाने से मुंह मोड़ते जा रहे हैं. केंद्र और राज्य स्तर पर चुनिंदा शहरों में एम्स या मेडिकल कॉलेज खोलकर दायित्व निभाया जा रहा है.
जिस तरह निजी क्षेत्र ने चिकित्सा में पांव पसारे हैं, उससे सेवा का यह क्षेत्र एक बड़ी मंडी बनकर रह गया है. न्यायपालिका ने समय-समय पर जिम्मेदारी निभाते हुए राज्यों और केंद्र को संवैधानिक बोध कराया है. पर उसका परिणाम कुछ खास नहीं निकला. अगर सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्थाएं देखें तो पाते हैं कि 1984, 1987 और 1992 के कुछ प्रकरणों में यह कहा गया था कि स्वास्थ्य और चिकित्सा मौलिक अधिकार ही है. इसी प्रकार 1996 और 1997 में पंजाब और बंगाल के दो मामलों में इस शिखर संस्था ने कहा था कि स्वास्थ्य सुविधाएं देना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है.
कोरोना काल में भी अनेक राज्यों के उच्च न्यायालय इस बात को पुरजोर समर्थन देते रहे हैं कि चुनी हुई सरकारें अपने नागरिकों के इस मौलिक अधिकार से बच नहीं सकतीं. पिछले बरस तेलंगाना हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया था कि मेडिकल इमरजेंसी के नाम पर अवाम के मौलिक अधिकारों को कुचलने की इजाजत नहीं दी जा सकती. अदालत ने इलाज के दायरे में निजी अस्पतालों को भी शामिल किया था.
बिहार उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को कोविड से निपटने के लिए कोई कार्ययोजना नहीं बनाने पर फटकार लगाईं थी. कुछ अन्य उच्च न्यायालयों ने भी राज्य सरकारों को आड़े हाथों लिया है. करीब बारह वर्ष पहले राष्ट्रीय स्वास्थ्य विधेयक के तीसरे अध्याय में मरीजों के लिए न्याय की गारंटी दी गई थी. उसके बाद 2018 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक चार्टर स्वीकार किया था.
इसमें मरीजों के लिए 17 अधिकार शामिल किए गए और कहा गया था कि अपने स्वास्थ्य व चिकित्सा का सारा रिकॉर्ड मरीज को देने के लिए अस्पताल बाध्य है. आपात स्थिति हो तो बिना पैसे के इलाज पाने का अधिकार भी पीड़ित को है. इतना ही नहीं, इस चार्टर के मुताबिक एक डॉक्टर के बाद दूसरे डॉक्टर से परामर्श लेने के लिए भी बीमार को छूट दी गई है.
साथ ही यह भी कहा गया कि अस्पताल भुगतान या बिल की प्रक्रिया में देरी के चलते किसी बीमार को रोक नहीं सकता और न ही शव को देने से इनकार कर सकता है. लेकिन हकीकत यह है कि कोरोना काल में इस चार्टर की धज्जियां बार-बार उड़ाई गई हैैं.