भारत से दुश्मनी के बल पर टिकी है चीन-पाकिस्तान की दोस्ती, रहीस सिंह का ब्लॉग

By रहीस सिंह | Published: June 1, 2021 06:25 PM2021-06-01T18:25:06+5:302021-06-01T18:29:12+5:30

पाकिस्तान के जरिए भारत की पश्चिमी सीमा पर प्रेशर प्वाइंट्स को सक्रिय रखना और भारत के शांतिपूर्ण विकास में निरंतर बाधा डालना. द्वितीय-अब चीन एक परंपरागत हथियारों का उभरता विक्रेता बन रहा है.

China-Pakistan friendship 70 years rests strength enmity India Rahis Singh's blog | भारत से दुश्मनी के बल पर टिकी है चीन-पाकिस्तान की दोस्ती, रहीस सिंह का ब्लॉग

चीन-पाकिस्तान की दोस्ती के लिए ‘ऑल वेदर फ्रेंड्स’ और ‘आयरन ब्रदर्स’ जैसे विशेषण प्रयुक्त किए जा रहे हैं.

Highlightsचीन एक परंपरागत हथियारों का उभरता विक्रेता बन रहा है.अर्थव्यवस्था और सैन्य क्षमता के जरिए एशिया, मध्यपूर्व और  अफ्रीकी देशों तक अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है.अमेरिकी थिंक टैक की एक रिपोर्ट पर भरोसा करें तो पाकिस्तान दस सबसे खतरनाक देशों में से एक है.

70 वर्ष पूर्ण कर रही चीन-पाक दोस्ती पर पिछले दिनों चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने कहा कि ‘यह एक अच्छे इतिहास की प्राप्ति जैसी है क्योंकि दोनों ने चौतरफा सहयोग किया.’

क्या यह हास्यास्पद बात नहीं लगती? पाकिस्तान और सहयोग? इसके उदाहरण दिखे क्यों नहीं? एक साम्राज्यवाद को विस्तार दे रहा है और दूसरे ने चरमपंथ को संरक्षण देने और आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने के अतिरिक्त और कुछ जाना ही नहीं. पिछले काफी समय से चीन-पाकिस्तान की दोस्ती के लिए ‘ऑल वेदर फ्रेंड्स’ और ‘आयरन ब्रदर्स’ जैसे विशेषण प्रयुक्त किए जा रहे हैं.

क्या यह सच है? क्या ऐसा नहीं लगता कि यह स्वाभाविक दोस्ती नहीं है बल्कि ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ के आधार पर दो आस्वाभाविक मनोदशाओं के सहारे चल रही है? वैसे चीन स्वयं यह स्वीकार कर रहा है कि दोनों देशों के बीच दोस्ती विन-विन के मूलभूत सिद्धांत पर कार्य कर रही है. यह स्वाभाविक साङोदारी के बजाय मौकापरस्त दोस्ती की विशेषता अधिक लगती है.

इसलिए जब तक दोनों के अपने-अपने स्वार्थ पूरे होते रहेंगे तब तक दोस्ती आगे सरकती रहेगी अन्यथा यह भी संभव है कि पाकिस्तान किसी अन्य देश की गोद में बैठ जाए या चीन अन्यत्र अधिक लाभ देखकर किसी और की पीठ पर हाथ रख दे. कुछ समय पहले जारी अमेरिकी थिंक टैक की एक रिपोर्ट पर भरोसा करें तो पाकिस्तान दस सबसे खतरनाक देशों में से एक है.

जब भी कभी पाकिस्तान पोषित आतंकवाद या आतंकवादी संगठनों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में कोई प्रस्ताव लाया जाता है या उस दिशा में पहल की जाती है तो चीन उसका विरोध करता है. इस तरह से वह पाकिस्तान आधारित आतंकवादी संगठनों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने का काम करता है. यह जगजाहिर है कि चीन परमाणु बम बनाने से लेकर प्रक्षेपास्त्र और अन्य सैन्य तैयारियों हेतु पाकिस्तान को मदद करता है, ताकि वह भारत के खिलाफ सक्रिय रह सके. इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि चीन-पाक मैत्री कितनी पाक है.

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि चीन पाकिस्तान के हितों के लिए चिंतित होकर इस तरह का सहयोग कर रहा है. बल्कि इसके पीछे उसके दो उद्देश्य हैं- प्रथम, पाकिस्तान के जरिए भारत की पश्चिमी सीमा पर प्रेशर प्वाइंट्स को सक्रिय रखना और भारत के शांतिपूर्ण विकास में निरंतर बाधा डालना. द्वितीय-अब चीन एक परंपरागत हथियारों का उभरता विक्रेता बन रहा है.

यानी उसका डिफेंस बाजार पाकिस्तान और उस जैसे अन्य पिछड़े देशों की मांग पर निर्भर करेगा. यह तभी संभव है जब चीन या तो वहां पैठ बनाए अथवा उनमें भय पैदा करे. इसका सार यह है कि चीन में अब अमेरिका की तरह मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स निर्मित हो रहा है जो अपनी अर्थव्यवस्था और सैन्य क्षमता के जरिए एशिया, मध्यपूर्व और  अफ्रीकी देशों तक अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है.

इस उद्देश्य से  चीन दोहरे चरित्र का प्रयोग करता है. वह एशिया और अफ्रीका में ‘की क्राइसिस मैनेजर’ के रूप में स्वयं को पेश करता है लेकिन वास्तव में वह क्राइसिस मैनेजर नहीं बल्कि ‘थ्रेट मैनेजर’ की भूमिका निभा रहा होता है. हालांकि दुनिया धीरे-धीरे उसके इस दूसरे चेहरे को पहचानने लगी है, उंगली भी उठ रही है लेकिन वर्तमान समय में कोई वैश्विक ताकत या मंच उपलब्ध नहीं है जो उस पर नियंत्रण स्थापित कर सके या इस तरफ निर्णायक कदम उठा सके. फिलहाल चीन-पाकिस्तान बॉन्डिंग का मुख्य उद्देश्य भारत को घेरना अथवा उसे नीचा दिखाना है.

पाकिस्तान की यही मानसिकता कभी अमेरिका के साथ सैन्य संगठन का हिस्सा बनने की थी. लेकिन क्या हुआ था? वह शीतयुद्ध को दक्षिण एशिया के आंगन तक ले आया था जिसके परिणाम दक्षिण एशिया को भुगतने पड़े. अमेरिकी सैन्य गठबंधन के बाद उसकी गोद में बैठकर वह सैन्य-चरमपंथ गठजोड़ का पोषण करता रहा जिसने दक्षिण एशिया को आतंकवाद का न्यूक्लियस बना दिया.

अब वह चीन की गोद में बैठ रहा है. यह वही चीन है जिसके चेयरमैन ने 1951 में पाकिस्तानी राजदूत से बीजिंग में पदभार ग्रहण के डॉक्यूमेंट्स को स्वीकार करते हुए लिखा था - ‘मैं ब्रिटेन, आयरलैंड और ब्रिटिश औपनिवेशिक देशों की तरफ से इन दस्तावेजों को प्राप्त करते हुए खुशी महसूस करता हूं.’

यानी चेयरमैन माओत्से तुंग ने उस समय पाकिस्तान का नाम भी नहीं लिया था, उसे एक उपनिवेश के तौर पर स्वीकार किया था. शायद आज भी वह औपनिवेशिक मानसिकता एवं हैसियत से ऊपर नहीं आ पाया है. शायद यही 70 वर्षों की दोस्ती का असली तोहफा है, शेष तो सब दिखाने के लिए है.

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