विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः नेताओं को क्यों नहीं सुनाई देतीं बच्चों की चीखें?
By विश्वनाथ सचदेव | Published: June 27, 2019 02:33 PM2019-06-27T14:33:07+5:302019-06-27T14:33:07+5:30
पिछले लगभग एक माह में मुजफ्फरपुर के अस्पताल में मरने वाले बच्चों की संख्या, यह लिखने तक डेढ़ सौ से ऊपर पहुंच चुकी है. उन बच्चों की चीखें तो बीमारी की पीड़ा में डूब सकती हैं, पर उनके बिलखते मां-बाप और परिजनों का दर्द तो लगातार गूंजता रहा है इस बीच. प्रधानमंत्नी से यह सवाल पूछने का मतलब सरकार से पूछना है, और सरकार कह सकती है कि वह इस भीषण कांड से अनभिज्ञ नहीं है.
आज के युग में भौगोलिक दूरियां कुछ ज्यादा मायने नहीं रखतीं, फिर भी 1084 किमी और 386 किमी के अंतर को समझना मुश्किल नहीं है. देश की राजधानी दिल्ली से बिहार के मुजफ्फरपुर की दूरी 1084 किमी है, जबकि झारखंड की राजधानी रांची से मुजफ्फरपुर पहुंचने के लिए 386 किमी की दूरी ही पार करनी पड़ती है. यह जानकारी जुटाने वाले देश के एक नागरिक ने फेसबुक पर प्रधानमंत्नी से पूछा था, ‘‘क्या रांची पहुंचकर भी आपको मुजफ्फरपुर में मरने वाले बच्चों की चीखें नहीं सुनाई दीं?’’ आसान नहीं है इस सवाल का उत्तर देना.
पिछले लगभग एक माह में मुजफ्फरपुर के अस्पताल में मरने वाले बच्चों की संख्या, यह लिखने तक डेढ़ सौ से ऊपर पहुंच चुकी है. उन बच्चों की चीखें तो बीमारी की पीड़ा में डूब सकती हैं, पर उनके बिलखते मां-बाप और परिजनों का दर्द तो लगातार गूंजता रहा है इस बीच. प्रधानमंत्नी से यह सवाल पूछने का मतलब सरकार से पूछना है, और सरकार कह सकती है कि वह इस भीषण कांड से अनभिज्ञ नहीं है.
देश के स्वास्थ्य मंत्नी ने स्वयं मुजफ्फरपुर जाकर इस त्नासदी को देखा-समझा है. यह बात गलत नहीं है. पर यह कहना भी सही नहीं होगा कि देश के स्वास्थ्य मंत्नी ने, जो स्वयं एक डॉक्टर भी हैं, स्थिति की गंभीरता को समझा है. उन्होंने आश्वासन दिया है कि बिहार में सौ बिस्तर की क्षमता वाले अस्पताल खोले जाएंगे, मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे, ताकि डॉक्टरों की कमी की समस्या का समाधान हो सके. कुछ भी गलत नहीं है इन घोषणाओं में. जरूर बनाइए अस्पताल और मेडिकल कॉलेज. पर देश जो सवाल पूछा रहा है, वह यह है कि आजादी के सत्तर-बहत्तर साल बाद भी देश के बच्चे इस तरह मरने के लिए शापित क्यों हैं.
चमकी बुखार का प्रकोप पहली बार नहीं दिख रहा. पिछले चार-पांच साल में लगातार इस त्नासदी को ङोला गया है. इस दौरान उन्होंने क्या किया जिन पर देश के बच्चों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी है?
तर्क दिए जा रहे हैं कि बीमार बच्चे समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाए; अचानक आई इस आपदा के लिए अस्पताल तैयार नहीं था; बच्चों ने भूखे पेट लीची खा ली होगी, इसलिए वे इस खतरनाक बीमारी के शिकार हुए होंगे. ऐसे तर्क सुनकर हंसी भी आती है, और गुस्सा भी. सब जानते हैं कि इस बीमारी का मुख्य कारण कुपोषण है. कुपोषण अर्थात् बच्चों को उचित मात्ना में उचित खाद्यान्न न मिलना. सवाल उठता है कि सरकार के सारे दावों और सारे वादों के बावजूद देश का बचपन भूखा क्यों है? क्यों बिहार के दूर-दराज इलाकों में रहने वाले बच्चों को सुबह-सबेरे खाली पेट लीची खानी पड़ती है? यही मुख्य कारण बताया जा रहा है न इस बीमारी का?
देश में कुपोषण से मरने वाले बच्चों के संबंध में पहली बार सवाल नहीं उठ रहे. यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रन फंड द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार भारत में पैदा होने वाले एक हजार बच्चों में से 61 बच्चे पांच साल का होने से पहले ही मर जाते हैं- इनमें से आधे कुपोषण से मरते हैं. यूनिसेफ के आंकड़ों के अनुसार भारत में हर तीन में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है. हम देश की जीडीपी के विकास के भले ही कितने भी दावे कर लें, पर यह सच्चाई हमारा मुंह चिढ़ाती रहेगी कि दुनिया के एक तिहाई कुपोषित बच्चे हमारे देश में हैं और कुपोषण का सबसे बड़ा कारण समुचित आहार का न मिलना है.
प्रधानमंत्नी चाहते तो रांची से मुजफ्फरपुर पहुंचकर चमकी बुखार के पीड़ितों का हाल-चाल ले सकते थे. रांची से मुजफ्फरपुर की यह दूरी हवाई जहाज से सिर्फ एक घंटे में पार की जा सकती है. पर सवाल चाहने का है. हमारे हुक्मरानों को समझना होगा कि देश के हर नागरिक को सुरक्षा का आश्वासन देना प्रगति या विकास की और किसी भी अवधारणा से अधिक महत्वपूर्ण है. क्यों किसी नागरिक को लगे कि उसकी जिंदगी और किसी और की जिंदगी में भेद किया जा रहा है? क्यों चमकी बुखार का शिकार कोई बच्चा अस्पताल तक पहुंच ही न पाए, और क्यों किसी अन्य के लिए चिकित्सा के महामार्ग तैयार हों? वह स्थिति कब आएगी जब देश के हर नागरिक को उचित चिकित्सा का हर अवसर उपलब्ध होगा?
मुजफ्फरपुर के सबसे बड़े कहे जाने वाले अस्पताल में एक बिस्तर पर चार बच्चों को लिटाये जाने की या फिर बीमारों के परिजनों को गंदे फर्श पर रातें काटने की विवशता के दर्द को हमारे मंत्नी, हमारे राजनेता, हमारे अफसर तभी अनुभव कर सकते हैं जब उन्हें कभी उचित सुविधाओं से वंचित सरकारी अस्पतालों में ही इलाज कराना पड़े. क्या सरकार ऐसा कोई नियम नहीं बना सकती कि हमारे मंत्रियों, नेताओं, अफसरों के लिए सरकारी अस्पतालों में ही इलाज कराना जरूरी हो?
तब शायद टी.वी. के किसी एंकर को किसी डॉक्टर से चीख-चीख कर नहीं पूछना पड़ेगा कि पर्याप्त बिस्तर क्यों नहीं हैं, सभी डॉक्टर ड्यूटी पर क्यों नहीं हैं, बीमारी के इलाज के लिए जरूरी दवा अस्पताल में क्यों नहीं है. दूर-दराज के इलाकों से असहाय मरीजों को लाने के लिए एम्बुलेंस क्यों उपलब्ध नहीं हैं? क्यों हमारे बच्चे मरने के लिए शापित हैं? प्रधानमंत्री जी, ये सारे सवाल आपको पूछने चाहिए थे- हमें आपसे पूछने पड़ रहे हैं.