पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: बुलंदशहर की हिंसा से उपजे कई सवाल
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: December 7, 2018 08:02 AM2018-12-07T08:02:51+5:302018-12-07T08:02:51+5:30
कानून का राज खत्म होता है तो कानून के रखवाले भी निशाने पर आ सकते हैं। सिस्टम जब सत्ता की हथेलियों पर नाचने लगता है तो फिर सिस्टम किसी के लिए नहीं होता।
एनकाउंटर हर किसी का होगा जो सत्ता के खिलाफ होगा। इस फेहरिस्त में कल तक पुलिस सत्ता विरोधियों को निशाने पर ले रही थी तो अब पुलिसवाले का ही एनकाउंटर हो गया क्योंकि वह सत्ता की धारा के विपरीत जा रहा था। बुलंदशहर की हिंसा के बाद उभरे हालात ने एक साथ कई सवालों को जन्म दे दिया है। मसलन, कानून का राज खत्म होता है तो कानून के रखवाले भी निशाने पर आ सकते हैं। सिस्टम जब सत्ता की हथेलियों पर नाचने लगता है तो फिर सिस्टम किसी के लिए नहीं होता।
संवैधानिक संस्थाओं के बेअसर होने का यह कतई मतलब नहीं होगा कि संवैधानिक संस्थाओं के रखवाले बच जाएंगे और आखिरी सवाल क्या राजनीतिक सत्ता वाकई इतनी ताकतवर हो चुकी है कि कल तक जिस पुलिस को ढाल बनाया आज उसी ढाल को निशाने पर ले रही है। यानी लोकतंत्र को धमकाते भीड़तंत्र के पीछे लोकतंत्र के नाम पर सत्ता पाने वाले ही हैं और इन सारे सवालों के अक्स में बुलंदशहर में पुलिस वाले को मारने वाले आरोपियों की कतार में सत्ताधारी राजनीतिक दल से जुड़ा होना भर है या सत्ता के अनुकूल विचार को अपने तरीके से प्रचार प्रसार करने वाले हिंदूवादी संगठनों की सोच है।
बुलंदशहर को लेकर पुलिस रिपोर्ट तो यही बताती है कि पुलिसकर्मी सुबोध कुमार सिंह की हत्या के पीछे अखलाक की हत्या की जांच को सत्तानुकूल न करने की सुबोध कुमार सिंह की हिम्मत रही। पुलिस यूपी में कल तक 29 एनकाउंटर कर चुकी थी। हर एनकाउंटर के बाद योगी सत्ता ने ताली ही पीटी और एनकाउंटर करती पुलिस को आपराधिक नैतिक बल सत्ता से मिलता रहा। जब सामने उसके अपने ही सहयोगी निडर पुलिसकर्मी सुबोध कुमार सिंह आ गए तो सत्ता की ताली पर तमगा बटोरती पुलिस को भी सुबोध की हत्या में कोई गलती दिखाई नहीं दी। पुलिसकर्मी सुबोध को मरने के लिए छोड़कर पुलिस भीड़तंत्र के किस राज की स्थिति में जा रही है!
जिस मोटी लकीर का जिक्र शुरू में किया गया वह कैसे अब और मोटी की जा रही है इसे समझने के लिए तीन स्तर पर जाना होगा। पहला, पुलिस के लिए आरोपी वीआईपी है। दूसरा, वीआईपी आरोपी की पहचान अब विहिप, बजंरग दल, गो रक्षा समिति या भाजपा के कार्यकर्ता भर की नहीं रही। तीसरा, जब पुलिस के लिए सत्तानुकूल होकर अपराध करने की छूट है तब न्यायालय के सामने भी सवाल है कि क्या वह उस जांच के सबूतों के आधार पर फैसले दे जिस जांच को पुलिस ही करती है। अभी तक ये माना जाता रहा कि चुनाव में सत्ता परिवर्तन कर जनता अलोकतांत्रिक होती सत्ता के खिलाफ अपना सारा गुस्सा निकाल देती है। लेकिन इस प्रक्रिया में जब पहली बार यह सवाल सामने आया है कि चुनावी लोकतंत्र की परिभाषा को ही अलोकतांत्रिक मूल्यों को परोस कर बदल दिया जाए। यानी पुलिस, कोर्ट, मीडिया, जांच एजेंसी सभी अलोकतांत्रिक पहल को सत्ता के डर से लोकतांत्रिक बताने लगें तो फिर चुनाव सेफ्टी वाल्व के तौर पर भी कैसे बचेगा?