एन. के. सिंह का ब्लॉग: भावना के भंवर में भटकाने की कोशिश ठीक नहीं

By एनके सिंह | Published: January 12, 2019 08:21 AM2019-01-12T08:21:18+5:302019-01-12T08:21:18+5:30

BLOG ON General Category Reservation:किसी ने नहीं पूछा कि इतने बड़े सपने का न तो पिछले यानी 2014 के चुनाव में जिक्र  किया न इन चार साल नौ महीने के शासन काल में? फिर क्यों लगा इतना वक्त? इतना बड़ा सपना तो पार्टी के घोषणा-पत्न का प्रमुख बिंदु होना चाहिए था।

BLOG on General Category Reservation, ram mandir and bjp election political jumla jumla | एन. के. सिंह का ब्लॉग: भावना के भंवर में भटकाने की कोशिश ठीक नहीं

एन. के. सिंह का ब्लॉग: भावना के भंवर में भटकाने की कोशिश ठीक नहीं

सुप्रीम कोर्ट पर यह दबाव है कि अयोध्या विवाद पर जल्दी फैसला दे। अदालत के खिलाफ, जजों के खिलाफ तख्ती लगाए लोग सड़कों पर खड़े हैं। गेरुआ पहने ‘संत’ टीवी चैनलों के अपने बयान में देश के सबसे बड़े कोर्ट की गरिमा को खंडित करने का हर प्रयास कर रहे हैं। क्या रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रही आम जनता या आसमान में मेघ की बाट जोहते किसान के लिए यही सबसे प्राथमिकता का विषय है? और अगर है तो मंडी में प्याज की कीमत जमीन पर आने से वह कीटनाशक खाकर क्यों मौत को गले लगा लेता है? 
 
केंद्र में जब चुनाव के केवल तीन महीने ही रह जाते हैं और जब तीन बड़े राज्यों के चुनाव में हार मिलती है तो प्रधानमंत्नी को गरीब सवर्णो की याद आती है। गरीब- वह दलित हो, बैकवर्ड हो या सवर्ण हो, उसकी तर्कशक्ति पर अक्सर भावना बलवती हो जाती है क्योंकि वह गरीब है तो अशिक्षित भी है, अतार्किक भी, लिहाजा भावुक भी। नतीजतन, इस बिल के लोकसभा में पारित होने के अगले दिन ही प्रधानमंत्नी ने आगरा की एक जनसभा में कहा ‘‘मैं जब गुजरात का मुख्यमंत्नी था तब से मेरी प्रबल इच्छा थी कि हमारे आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए ऐसा कानून बने। जब मैं प्रधानमंत्नी बना तब जा कर मेरी यह इच्छा पूरी हुई।’’

 किसी ने नहीं पूछा कि इतने बड़े सपने का न तो पिछले यानी 2014 के चुनाव में जिक्र  किया न इन चार साल नौ महीने के शासन काल में? फिर क्यों लगा इतना वक्त? इतना बड़ा सपना तो पार्टी के घोषणा-पत्न का प्रमुख बिंदु होना चाहिए था। लगभग 1800 दिनों के कार्यकाल में कभी भी इन आर्थिक गरीबों को आरक्षण देने पर कोई चर्चा नहीं। खैर, सपने व्यक्तिगत होते हैं दूसरों को नहीं बताने चाहिए जब तक कि पूरे न हों। लेकिन देरी क्यों? अगर 2014 में ही यह सपना अमल में आ जाता तो कितने लाख आर्थिक गरीब (सवर्ण लिखने में छोटी सी तकनीकी समस्या है) आज सरकारी ओहदों पर होते। क्या हाल में दोनों सदनों में सत्ता-पक्ष की संख्या में कुछ इजाफा हुआ है? सच तो यह है कि कुछ सहयोगी दल कम ही हुए हैं और राज्यसभा में भी कमोबेश अपेक्षित संख्या बगैर विपक्ष के समर्थन तब भी हासिल नहीं होती और आज भी नहीं। 

क्या वजह है कि सभी धार्मिक -सामाजिक संगठन अचानक तत्काल मंदिर बनाने पर दबाव बनाने लगे हैं? ‘मंदिर नहीं तो वोट नहीं’ नारा लग रहा है। यह दबाव दरअसल प्रधानमंत्नी पर कम है अदालत पर ज्यादा। प्रधानमंत्नी ने तो हाल ही में एक इंटरव्यू में साफ कर दिया कि अदालत के फैसले का इंतजार रहेगा और तब तक अध्यादेश नहीं आएगा। लिहाजा जन-आक्र ोश को अदालत की ओर मोड़ दिया गया। कक्षा दसवीं का सामान्य-ज्ञान वाला छात्न भी बता सकता है कि ठीक चुनाव के पहले इस दबाव का क्या राजनीतिक लाभ सत्ताधारी गठबंधन को मिल सकता है। अगर फैसला हिंदुओं के यानी ‘रामलला-विराजमान’ और निर्मोही अखाड़ा के पक्ष में जाता है तो कल से भावना का एक और हैवी डोज देते हुए हर हिंदू घर से ‘एक-एक पवित्न ईंट’ ‘भव्य मंदिर’ के निर्माण के लिए मंगवाने का अभियान शुरू कर दिया जाएगा। जाहिर है ‘जो बहन जी या भाई साहब’ ईंट देंगे वो वोट किसी और को तो नहीं ही देंगे और अगर यह फैसला मुसलमानों के हक में गया तब तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है। यानी दोनों हाथों में लड्ड। चित भी मेरी और पट भी मेरी। 

देश की सबसे बड़ी अदालत का यह नैतिक दायित्व है कि वह किसी भी जन-दबाव के आगे न झुके। क्योंकि अदालत के लिए सत्य का तराजू वह नहीं होता जो संसद में वोट के जरिए संख्यात्मक बहुमत हासिल कर सत्ता पाने के लिए होता है। अगर किसी फैसले के मात्न तीन माह पहले देने से किसी एक पक्ष को लाभ मिल रहा है तो इतिहास अदालत को गलत ठहराएगा क्योंकि फैसला तीन महीने पहले या बाद में देने से किसी पहाड़ का गिरना या न गिरना निर्भर नहीं करता। इस विवाद पर अदालती सुनवाई 133 साल पुरानी है। पहले कभी कोई बड़ी मांग जल्द फैसला देने की नहीं हुई। यहां तक कि पिछले चार साल नौ महीने में भी नहीं। लेकिन शायद सत्ताधारी वर्ग यह जानता है कि भारत में भावना आज भी तर्क पर भारी पड़ती है। 

राजनीति -शास्त्न का सिद्धांत भी कहता है कि अर्ध-शिक्षित समाज में संवैधानिक-तार्किक सोच पर अक्सर भावना भारी पड़ जाती है। हर सरकार के काल में विकास के आंकड़े कई मामलों में कम होते हैं तो कई पैरामीटर्स पर अच्छे भी। एक विकासशील देश में अचानक सभी आंकड़े आसमान पर पहुंच जाएं यह संभ

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