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ब्लॉग: चुनावी साल में चुनौतियों का भी अंबार

By Amitabh Shrivastava | Updated: December 30, 2023 10:40 IST

हालात को देखते हुए आने वाले साल में तय है कि मुश्किलें कम न होंगी। चुनावी साल के चलते जन आकांक्षाओं का ढेर बना रहेगा और आंदोलनों से राजनीतिक दलों की परीक्षा ली जाएगी।

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ठळक मुद्देराजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक घटनाक्रमों के साथ एक और साल बीतने जा रहा हैचुनावी साल के चलते जन आकांक्षाओं का ढेर बना रहेगादेश और राज्य में गर्माहट का माहौल साल भर बना रहेगा

नई दिल्ली: अनेक छोटे-बड़े राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक घटनाक्रमों के साथ एक और साल बीतने जा रहा है। गुजरते साल की अपनी चुनौतियां थीं, जो आयीं और गयीं। हालात को देखते हुए आने वाले साल में तय है कि मुश्किलें कम न होंगी। चुनावी साल के चलते जन आकांक्षाओं का ढेर बना रहेगा और आंदोलनों से राजनीतिक दलों की परीक्षा ली जाएगी। हालांकि स्थानीय निकायों से लेकर देश की सर्वोच्च संसद तक के प्रतिनिधियों का चयन जनता के हाथ में होगा, जिसमें कुछ ‘पास’ और कुछ ‘फेल’ होंगे। किंतु देश और राज्य में गर्माहट का माहौल साल भर बना रहेगा।

हर बार की तरह गुजरते साल में महाराष्ट्र अनेक राजनीतिक घटनाक्रमों का साक्षी बना। लंबे समय तक राज्य में राजनीतिक विवादों का केंद्र रहे राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को आखिरकार अपने पद से मुक्त करने का ऐलान करना पड़ा। यद्यपि वह पद छोड़कर अपने फैसलों के चलते चर्चाओं में बने रहे। उनकी जगह छत्तीसगढ़ से सात बार सांसद रहे और झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस महाराष्ट्र के राज्यपाल बनाए गए और उसके बाद से हमेशा राजनीति के भूकंप का केंद्र बनने वाला राजभवन शांत समुद्र हो गया। किंतु उसके बाद मई माह में फिर एक बार राजनीतिक भूचाल आया, जिसमें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के प्रमुख शरद पवार ने अपने पद से इस्तीफा देकर सनसनी फैला दी। मगर नाटकीय घटनाक्रम दो ही दिन चल पाया और उसके बाद पवार ने अपना त्याग-पत्र वापस लेकर अपने समर्थकों की इच्छा अनुरूप पूर्व पद पर बने रहने का फैसला किया। हालांकि इस पूरी गतिविधि में कहीं एक चिंगारी छूट गई, जिससे राकांपा में जुलाई में बड़ा विस्फोट हो गया और अजित पवार चाचा का साथ छोड़कर आक्रामक अंदाज में राज्य की शिंदे सरकार में शामिल हो गए।

यही नहीं, उन्होंने पूरी पार्टी तोड़कर अनेक प्रमुख नेताओं को अपने साथ लेने की कोशिश की। उनमें से कुछ को मंत्री बनवा कर अपना कद बढ़ा लिया. इसके साथ ही राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को छोड़ लगभग सभी दलों के दो से तीन टुकड़े तक हो गए। अतीत में शिवसेना पहले ही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और बाद में शिंदे गुट के रूप में टूटी, जबकि कांग्रेस दो दशक से अधिक समय पहले राकांपा के रूप में विभाजित हुई और उसके बाद इस साल राकांपा आपस में ही चाचा-भतीजे के नाम पर बंट गई। इस परिदृश्य में राज्य में अब नौ से दस राजनीतिक दलों के बीच राजनीतिक बिसात रचने की तैयारी हो गई है।

नए परिदृश्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना का मुकाबला मनसे और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना से है। वहीं शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा का मुकाबला अजित पवार के नेतृत्व वाली राकांपा से है। कांग्रेस इन टूट-फूट के बीच जोड़-घटाकर अपना भविष्य देख रही है, तो भाजपा भी नफा-नुकसान समझ कर हाथ आगे बढ़ाने में भलाई समझ रही है। इसके अलावा प्रकाश आंबेडकर के नेतृत्व में वंचित बहुजन आघाड़ी, जिसे चुनाव में दलित समाज की मुख्य पार्टी माना जा सकता है, के झुकाव पर बाकी गठबंधनों की नजर है। यदि वह स्वतंत्र चुनाव लड़ती है तो उसका नुकसान किसे और कहां होगा, इस बात का भी अंदाज लगाया जाना है।

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) कुछ स्थानों पर अपनी ताकत दिखा सकती है। वर्तमान में उसके पास एक सांसद तथा दो विधायक हैं। साथ ही अनेक स्थानीय निकायों में उसके प्रतिनिधि भी हैं। लिहाजा उसको चुनाव को प्रभावित करने वाला अपने मतदाताओं का आधार है। इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी के अलग-अलग गुटों को मिलाकर महाराष्ट्र का राजनीतिक परिदृश्य बहुत साफ नहीं दिख रहा है। मतदाताओं को काफी उलझाने और समझाने के बाद ही चुनाव की तस्वीर साफ नजर आएगी।राज्य में जहां सत्ताधारी दलों के लिए चुनावी समीकरणों को अपने पक्ष में बनाना एक चुनौती है, तो दूसरी ओर कई नई-पुरानी समस्याएं अपनी जगह समाधान मांग रही हैं। मौसम का बनता-बिगड़ता मिजाज खेती-किसानी से लेकर आम जन की जरूरत पेयजल के लिए मुसीबत बनता जा रहा है। 

छह माह से चल रहे मराठा आरक्षण आंदोलन का कोई ठोस हल नहीं निकल पा रहा है। औद्योगिकीकरण की धीमी गति, आधारभूत विकास में बाधाएं तथा विलंब, महंगाई और बेरोजगारी के सवालों का जवाब नहीं मिल रहा है। इसलिए समाज का एक वर्ग कुंठा में जीवन व्यतीत कर रहा है। नेताओं की राजनीतिक असफलता और पहचान का संकट अपनी जगह कुछ जटिल समस्याओं को हवा देता रहता है। इससे निपटना सत्ताधारियों के लिए सहज नहीं है। जैसे-जैसे चुनाव का वातावरण तैयार होगा, वैसे-वैसे सरकार और प्रशासन को नई चुनौतियां देने के प्रयास आरंभ होंगे। उसे साल में दो से तीन बार तक इनके बीच से गुजरना होगा। चुनावी साल सत्ताधारियों के लिए जितना चुनौतीपूर्ण है, उतना ही विपक्ष के लिए भी है. बीते समय में राज्य के सभी प्रमुख दलों ने सत्ता सुख को भोगा है। इसलिए अपनी जवाबदेही से कोई मुकर नहीं सकता। कोरोना महामारी के दो साल भी सभी के लिए चुनावी परीक्षा में कठिन प्रश्नों के रूप में शामिल होंगे। हालांकि राजनीतिक दल अपने अनुभवों के आधार पर अपनी कमियों और खूबियों से माहिर ही रहते हैं, लेकिन वर्तमान में मतदाता की जागृति और नेताओं की जवाबदेही पर उठते सवाल मतदान के समय निर्णय लेने में सहायक सिद्ध होते हैं। इसलिए गलतफहमी में जीकर सत्ता की बागडोर हासिल नहीं की जा सकती है। यदि नेतृत्व करना है तो परिणाम देने ही होंगे. विकास की संकल्पना को साकार कर दिखाना होगा। जाति और धर्म के भेद से छोटे लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते हैं। ऊंचाइयों को छूने के लिए वृहद दृष्टिकोण और सर्वांगीण विकास की अवधारणा  ही काम आ सकती है। फिलहाल चुनौतियों से मुकाबला सभी का है और केवल दोषारोपण से बात नहीं बन पाएगी। नए साल में प्रत्यक्ष प्रमाण से ही कुछ आगे की बात बन पाएगी।

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