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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: सौम्य, संयत और दृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी थे अटलजी

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: December 25, 2021 11:32 IST

भारत सरकार ने 2014 में वाजपेयीजी का जन्मदिन ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने का निश्चय किया था. भारत की वर्तमान चुनौतियों के बीच सुशासन निश्चय ही सबसे महत्वपूर्ण है।

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भारत: सात दशकों की अपनी लोकतांत्रिक यात्ना में स्वतंत्न भारत ने राजनीति की उठापटक में अब तक कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति से लेकर अमृत महोत्सव मनाने तक की दूरी तय करने में देश के नायकों की चर्चा में जमीन से जुड़े और लोकमानस का प्रतिनिधित्व करने वालों में भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी इस अर्थ में अनूठे हैं कि वे भारत के स्वभाव को भारत के नजरिये से परख पाते थे और परंपरा की शक्ति संजोते हुए भविष्य का स्वप्न देख सकते थे. भारतीय संसद के सदनों में उनकी सुदीर्घ उपस्थिति राजनीतिक संवाद और संचार के लिए मानक बन चुकी थी. किशोर वय में ही वे देश के आकर्षण से कुछ ऐसे अभिभूत हुए कि संकल्प ले डाला ‘हम जिएंगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए’ और अपने को इसके लिए समर्पित कर दिया. धैर्य, सहिष्णुता और वाग्मिता के साथ जीवन में एक कठिन और लंबी राह चलते हुए वे शीर्ष पर पहुंचे थे. 

भारत पर अंग्रेजी राज की लंबी दासता से मुक्ति मिलने के बाद आज लोकतांत्रिक देशों की पंक्ति में वैश्विक क्षितिज पर भारत आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से एक सशक्त देश के रूप में उभर रहा है. इसके पीछे नेतृत्व की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती. विभाजन के बाद की कठिन परिस्थितियों में एक आधुनिक और समाजवादी रुझान के साथ उत्तर उपनिवेशी स्वतंत्न भारत की यात्ना शुरू हुई थी जिसका ढांचा बहुत कुछ अंग्रेजों द्वारा विनिर्मित था. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्नों में नवाचार शुरू हुए थे और पंचवर्षीय योजनाओं का दौर चला था ताकि देश विकास की दौड़ में पीछे न रह जाए. इस बीच भारत समेत विश्व की परिस्थितियां बदलती रहीं. रूस और अमेरिका के बीच शीत युद्ध, वियतनाम युद्ध, पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच बर्लिन की दीवार का टूटना, सोवियत रूस का विघटन और यूरोपियन यूनियन का गठन जैसी घटनाएं हुईं.

भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 तथा 1971 में युद्ध हुआ और बांग्लादेश का उदय हुआ. भारत के भीतर क्षेत्नीयता और जाति के समीकरण प्रमुख होने लगे. नेहरू, गांधी परिवार ने लगभग चार दशकों तक सत्ता संभाली थी. इसके बाद भारतीय राजनीति की बुनावट और बनावट कुछ इस तरह बदली कि संभ्रांत के वर्चस्व की जगह व्यापक समाज जिसमें हाशिए पर स्थित मध्यम और दलित वर्ग भी शामिल था, अपनी भूमिका हासिल करने के लिए उद्यत हुआ. भारतीय राजनीति के नए दौर में पारदर्शिता, साङोदारी और संवाद की खास भूमिका रही. उत्तर आपात काल में कांग्रेस के विकल्प के रूप में ‘जनता दल’ का गठन हुआ और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्नी बने तथा 1977 से 1979 तक इस दायित्व का वहन किया. आगे चल कर भारत का राजनीतिक परिदृश्य इस अर्थ में क्रमश: जटिल होता गया कि इसमें कई स्वर उठने लगे और यह स्पष्ट होने लगा कि विभिन्न राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलने वाली एक समावेशी दृष्टि ही कारगर हो सकती थी. इसके लिए सहिष्णुता, खुलेपन की मानसिकता, सबको साथ ले चलने की क्षमता, सुनने-सुनाने का धैर्य और युगानुरूप सशक्त तथा दृढ़ संकल्प की जरूरत थी.

इन सभी कसौटियों पर सर्वमान्य नेता के रूप में वाजपेयीजी खरे उतरे. विविधता भरी राजनीति में उनको लेकर बनी सहमति का ही परिणाम था कि उन्हें प्रधानमंत्नी पद के लिए तीन बार स्वीकार किया गया. पहली बार 1996 में 13 दिनों का कार्यकाल था, 1998-1999 में दूसरी बार 19 महीने प्रधानमंत्रित्व संभाला. वर्ष 1999 में एनडीए, जिसमें दो दर्जन के करीब राजनीतिक दल साथ थे, के कठिन नेतृत्व की कमान संभालते हुए वाजपेयीजी तीसरी बार प्रधानमंत्नी बने. यह पूर्णकालिक सरकार रही.

कुल दस बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा में सदस्य के रूप में वे जनप्रतिनिधित्व करते रहे. वे एक श्रेष्ठ और रचनात्मक दृष्टि से संपन्न सांसद थे. उनकी आरोह-अवरोह वाली द्रुत-विलंबित वाग्मिता सबको प्रभावित करती थी. वे अपना पक्ष प्रभावी, पर सहज और तर्कपूर्ण ढंग से रखते थे और ऐसा करते हुए संसदीय मर्यादाओं का यथोचित सम्मान भी करते थे. किशोर वय में एक स्वयंसेवक के रूप में कर्मठ जीवन की जो दीक्षा उन्हें मिली थी, उसने युवा वाजपेयी की जीवन-धारा ही बदल दी थी. उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने और 1968 से 1973 तक यह कार्य भार संभाला. 

आधुनिक मन और भारत की सनातन संस्कृति के पुरस्कर्ता वाजपेयीजी देश की व्यापक कल्पना को संकल्प, प्रतिज्ञा और कर्म से जोड़ते हुए भारत के गौरव और सामथ्र्य को संबोधित करने के लिए सतत यत्नशील रहे. भारत सरकार ने 2014 में वाजपेयीजी का जन्मदिन ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने का निश्चय किया था. भारत की वर्तमान चुनौतियों के बीच सुशासन निश्चय ही सबसे महत्वपूर्ण है.

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