तीन राज्यों में हार से हिलती भाजपा की जड़ें

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: December 18, 2018 06:11 AM2018-12-18T06:11:41+5:302018-12-18T06:11:41+5:30

संसदीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि केंद्र में पूर्ण बहुमत के साथ कोई राजनीतिक दल सत्ता संभाले हुए हो और पांच राज्यों की विधानसभा में न सिर्फ जीत न पाए

BJP roots in defeat in three states | तीन राज्यों में हार से हिलती भाजपा की जड़ें

तीन राज्यों में हार से हिलती भाजपा की जड़ें

संसदीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि केंद्र में पूर्ण बहुमत के साथ कोई राजनीतिक दल सत्ता संभाले हुए हो और पांच राज्यों की विधानसभा में न सिर्फ जीत न पाए बल्कि तीन भाजपा शासित राज्यों को गंवा बैठे. और लोकसभा चुनाव में वक्त सिर्फ चार महीने का बचा हो जबकि इन पांच राज्यों में लोकसभा की 83 सीटें आती हैं और 2014 की तुलना में 22 सीटों में कमी आ गई यानी 2014 में 83 में से 53 सीट पर मिली जीत घटकर 31 हो गई तो क्या इसे सिर्फ विधानसभा चुनाव कहकर केंद्र की सत्ता को बचाया जा सकता है.

या फिर बीते चार बरस में जब सिर्फ केंद्र की नीतियों के ही प्रचार-प्रसार में भाजपा शासित हर राज्य न सिर्फ लगा रहा हो बल्कि ऐसा करने का दबाव भी हो तो मुद्दे भी कहीं न कहीं केंद्र के ही हावी हुए. और भाजपा अब अपने तीन सर्वाधिक पहचान वाले क्षत्नपों (शिवराज, वसुंधरा, रमन सिंह) की कुर्सी को जब गंवा चुकी है तब क्या भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बची हुई फौज (महाराष्ट्र में फडणवीस, हरियाणा में खट्टर, झारखंड में रघुवर दास, यूपी में योगी, उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत या गुजरात में रूपानी) के जरिए 2019 को देखा जा सकता है या फिर केंद्र की सत्ता के केंद्र में बैठे नरेंद्र मोदी-अमित शाह की रहस्यमयी सत्ता को डि-कोड कर ही भाजपा के सच को जाना जा सकता है.

क्योंकि तीन राज्यों की हार ने भाजपा के उन चार खंभों को ही हिला दिया है जिस पर मोदी-शाह की भाजपा सवार रही. पहला, अमित शाह चुनावी जीत के चाणक्य नहीं हैं. दूसरा, नरेंद्र मोदी राज्यों को अपने प्रचार से जीतने वाले चद्रगुप्त मौर्य नहीं हैं. तीसरा, हिंदुत्व या राम मंदिर को योगी या संघ भरोसे जनता ढोने को तैयार नहीं है. चौथा, गवर्नेस सिर्फ नारों से नहीं चलता और सत्ता सिर्फ जातीय आधार वाले नेताओं को साथ समेट कर पाई नहीं जा सकती है.

ध्यान दें तो हाल के दौर में जिस तरह केजरीवाल निकले और आम आदमी पार्टी का पूरा ढांचा ही केजरीवाल के इर्द-गिर्द सिमटता चला गया. केजरीवाल के बगैर ‘आप’ में किसी का भविष्य नहीं है तो 38 बरस पुरानी भाजपा या 93 बरस पुराने संघ की सोच से बनी जनसंघ और उसके बाद भाजपा का ढांचा भी ‘आप’ की ही तर्ज पर आ टिका. मोदी-शाह के बगैर अगर भाजपा का कोई अर्थ नहीं है तो बिना उनकी सहमति के कोई न आगे बढ़ सकता है न ही पार्टी में टिक सकता है. आडवाणी, जोशी का दरकिनार होना ही सच नहीं है बल्कि जो कद्दावर पदों पर हैं उनकी राजनीतिक पहचान भी जब मोदी-शाह से जुड़ी है तो फिर भाजपा को डिकोड कैसे किया जाए. क्योंकि पीयूष गोयल, धर्मेन्द्र प्रधान, प्रकाश जावड़ेकर, निर्मला सीतारमण या अरुण जेटली संसदीय चुनावी गणित में कहीं फिट बैठते नहीं हैं और भाजपा का सांगठनिक ढांचा सिवाय संख्या के कुछ बचता नहीं है. इसीलिए कार्पोरेट की पीठ पर सवार होकर 2014 की चकाचौंध अगर नरेंद्र मोदी न फैलाते तो 2014 में कांग्रेस जिस गर्त में बढ़ चुकी थी उसमें भाजपा की जीत तय थी. लेकिन मोदी के जरिए जिस रास्ते को संघ और तब के भाजपा धुरंधरों ने चुना उसमें भाजपा और संघ ही धीेरे-धीरे मोदी-शाह में समा गए. 

Web Title: BJP roots in defeat in three states

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