बिहार में सत्ता की आंख में बेरोजगारी की किरकिरी, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग
By अभय कुमार दुबे | Published: October 29, 2020 05:33 PM2020-10-29T17:33:10+5:302020-10-29T17:33:10+5:30
‘सुशासन’ करने वाला नेता बार-बार अपनी प्रशासनिक कुशलता के कारण जीतता रहता है. आर्थिक समृद्धि की दौड़ में बिहार के पिछड़ेपन की हकीकत से शायद ही कोई असहमत हो, लेकिन इसके बावजूद पिछले पंद्रह साल से एक ऐसा नेता चुनाव जीत रहा है जिसकी छवि ‘सुशासन बाबू’ की है.
चुनावों में आम तौर पर आर्थिक प्रश्न को सुशासन या कुशासन का मुद्दा दबा देता है. कानून-व्यवस्था की समस्या लोगों की जिंदगी को असुरक्षा से भर देती है, और जैसे ही कोई पार्टी, नेता या सरकार द्वारा सख्ती बरतते हुए इस मोर्चे पर सुधार किया जाता है, वैसे ही जनता बदले में जमकर समर्थन देने पर उतर आती है.
लेकिन, अपने जीवन को सुरक्षित बनाने का फौरी लक्ष्य वेधने के चक्कर में वोटर प्रदेश की आर्थिक दुर्गति की अनदेखी करते रह जाते हैं. ‘सुशासन’ करने वाला नेता बार-बार अपनी प्रशासनिक कुशलता के कारण जीतता रहता है. आर्थिक समृद्धि की दौड़ में बिहार के पिछड़ेपन की हकीकत से शायद ही कोई असहमत हो, लेकिन इसके बावजूद पिछले पंद्रह साल से एक ऐसा नेता चुनाव जीत रहा है जिसकी छवि ‘सुशासन बाबू’ की है. लेकिन चुनाव ने कुछ ऐसा मोड़ ले लिया है कि यह छवि अब सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए ज्यादा उपयोगी नहीं रही है.
प्रदेश के चुनाव में यह मोड़ मुख्य तौर से वोटरों के विन्यास में हुए एक परिवर्तन से आया है. इस समय बिहार के कुल वोटरों का तकरीबन 51 फीसदी 18 से 39 साल की उम्र तक का है (7.18 करोड़ में से 3.66 करोड़). इसका मतलब यह हुआ कि 1995 में जब लालू यादव ने पहली बार पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था, उस समय इनमें से बहुतों का जन्म भी नहीं हुआ था और जो लोग आज तीस-चालीस साल के हैं वे उस समय ज्यादा से ज्यादा पांच से दस साल के रहे होंगे.
18 से 25 साल के वोटरों की संख्या सोलह फीसदी से ज्यादा की है. युवा वोटरों के इस प्रदेश की ताजातरीन खास बात यह कि संयोग से सही लेकिन इसका राजनीतिक नेतृत्व भी काफी युवा दिख रहा है. कुल मिला कर बिहार के चुनाव में जवानी की बहार है.जवानी की इसी बहार ने चुनावी मुद्दों में वह परिवर्तन किया है जिसे मैं आíथक प्रश्न पर चुनाव होना कह रहा हूं.
चूंकि ज्यादातर वोटर युवा हैं इसलिए अचानक बेरोजगारी का सवाल प्रचार मुहिम के केंद्र में आ गया है. यह सवाल पूछा जा रहा है कि 15 से 29 साल की काम करने में समर्थ श्रमशक्ति बेरोजगार क्यों है? सरकार ने खाली पड़े पदों को क्यों नहीं भरा? चूंकि बिहार में न तो निजी निवेश आ रहा है और न ही सरकार अधिसंरचनात्मक सुविधाओं को बढ़ाने के लिए निवेश कर रही है, इसलिए रोजगार मिलने की संभावना नगण्य है. कुल मिलाकर बेरोजगारी का जो राष्ट्रीय प्रतिशत है, बिहार में बेरोजगारी उससे भी ज्यादा है.
नीतीश कुमार के पंद्रह साल लंबे शासनकाल में उनके ही पहले कार्यकाल से तुलना करने पर पता लगता है कि बाकी दोनों कार्यकालों में निजी निवेश बुरी तरह से गिरा है. बिहार देश की आबादी का कुल नौ फीसदी है, लेकिन देश के कुल आर्थिक उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी केवल तीन फीसदी ही है. इन आंकड़ों की रोशनी में पूछा जा सकता है कि अगर लालू यादव का कार्यकाल विकास-विरोधी था, तो नीतीश कुमार के कार्यकाल को क्या कहा जाएगा? नीतीश की सरकार महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना का बेहतर इस्तेमाल करने में भी नाकाम रही.
यह देख कर ताज्जुब होता है कि इस सरकार के तहत 2019-20 में केवल 20,445 परिवारों को ही सौ दिन का काम मिल सका. आबादी के मुकाबले यह प्रतिशत 0.5 है, जबकि इसका राष्ट्रीय प्रतिशत 7.0 बताया जाता है. बढ़ती हुई बेरोजगारी, विपन्नता और असहायता की इस समस्या को भाजपा से भी पहले तेजस्वी यादव ने समझा. उन्होंने रोजगार बढ़ाने का सामान्य आश्वासन देने के बजाय ठोस रूप से दस लाख नौकरियां देने का वायदा कर डाला. सरकारी पक्ष से पहले इस वायदे का मजाक उड़ाया गया.
लेकिन, जल्दी ही भाजपा और सत्तारूढ़ गठजोड़ को अपनी गलती समझ में आ गई. फिर उन्होंने भी बेरोजगारी के मुद्दे को पकड़ने की कोशिश की. उनकी तरफ से 19 लाख नये रोजगारों के सृजन (केवल नौकरियां नहीं) का वायदा किया गया. स्वयं प्रधानमंत्री ने अपनी चुनावी रैलियों ने आर्थिक समृद्धि के मोर्चे पर अपेक्षित सफलता न मिल पाने की जिम्मेदारी कांग्रेस के दस साल के केंद्रीय शासन पर डाल दी. लेकिन यह नहीं बताया कि नीतीश के पंद्रह साल में ढाई साल छोड़ कर बाकी सारे समय भाजपा उनकी सरकार में बराबर की भागीदार के रूप में इस विफलता की हिस्सेदार क्यों नहीं समझी जानी चाहिए?
बेरोजगारी का यह सवाल इस लिहाज से भी संगीन हो गया है कि तीस साल के युवा वोटरों को लालू राज्य की अराजकता की कोई स्मृति नहीं है. इसलिए जंगल राज’ का डर दिखा कर उसके वोट नहीं लिए जा सकते. तेजस्वी यादव की जनसभाओं में आने वाली भीड़ इसका सबूत है. कहना न होगा कि पलड़ा अभी भी नीतीश और राजग के पक्ष में झुका है, लेकिन बेरोजगारी का सवाल सत्तारूढ़ शक्तियों के लिए चुनौती बन रहा है.