भरत झुनझुनवाला का ब्लॉगः सरकार के सामने वित्तीय घाटे के कठिन प्रश्न से निपटने की चुनौती
By भरत झुनझुनवाला | Published: January 19, 2020 05:38 AM2020-01-19T05:38:34+5:302020-01-19T05:38:34+5:30
यदि वर्तमान में सरकार वित्तीय घाटे को बढ़ाकर ऋण लेती है तो उसका बोझ देश पर आने वाले समय में पड़ता है. तब सरकार को अधिक टैक्स वसूलकर इस ऋण की अदायगी करनी होती है. वर्तमान खर्च को भविष्य की आय से पोसने का मंत्न वित्तीय घाटा होता है.
एनडीए-2 सरकार ने पिछले छह वर्षो में वित्तीय घाटे पर नियंत्नण पाने की नीति को अपनाया है लेकिन परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं. हमारी विकास दर लगातार घटती जा रही है. वित्तीय घाटा उस रकम को कहते हैं जो सरकार अपनी आय से अधिक खर्च करती है. जैसे सरकार की आय यदि 80 रुपए हो और वह खर्च 100 रु. करे तो वित्तीय घाटा 20 रु. होता है. वित्तीय घाटे का अर्थ हुआ कि सरकार अधिक किए गए खर्च की रकम को ऋण के रूप में बाजार से उठाती है. इस ऋण को भविष्य में सरकार को अदा करना होता है. यदि वर्तमान में सरकार वित्तीय घाटे को बढ़ाकर ऋण लेती है तो उसका बोझ देश पर आने वाले समय में पड़ता है. तब सरकार को अधिक टैक्स वसूलकर इस ऋण की अदायगी करनी होती है. वर्तमान खर्च को भविष्य की आय से पोसने का मंत्न वित्तीय घाटा होता है.
जब निजी निवेश नहीं आ रहा हो तब वित्तीय घाटे को और अधिक नियंत्रित करने से लाभ होने की संभावना कम ही होती है. जैसे यदि मरीज को पर्याप्त एंटीबायोटिक दवाई दी जा रही हो और उसकी स्थिति में सुधार नहीं हो रहा हो, तो उसे और तगड़ी एंटीबायोटिक दवा देने से उसके स्वास्थ्य के सुधरने की संभावना कम ही होती है. इसलिए डॉक्टर को चाहिए कि इस बात को समङो कि उसे एंटीबायोटिक दवा की ताकत बढ़ाने की जरूरत है अथवा दवा बदलने की जरूरत है. मेरा मानना है कि पिछले छह वर्षो में हमारी सरकार वित्तीय घाटे को लगातार नियंत्नण में रख रही है और हमारी अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य भी बिगड़ता जा रहा है इसलिए अब नीति को बदलने की जरूरत है. वित्तीय घाटे को और अधिक नियंत्नित करने से नुकसान ही होने की अधिक संभावना है. अत: जब निजी निवेश नहीं आ रहा है तब सरकार को ऋण लेकर स्वयं निवेश करना चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था में मांग बने और वह चल निकले.
यहां सावधानी यह बरतनी है कि ऋण में ली गई रकम का वास्तव में उत्पादक निवेश किया जाए. जैसे यदि सरकार ने ऋण लेकर हाईवे बनाया तो माल की ढुलाई सस्ती हुई, अर्थव्यवस्था में गति आई और उस गतिमान अर्थव्यवस्था में जीएसटी की वसूली अधिक हुई, जिससे उस ऋण को अदा किया जा सकता है. यह उसी प्रकार है जैसे एक सफल उद्यमी ऋण लेकर फैक्टरी लगाता है. वह फैक्टरी से अर्जित आय से ऋण की अदायगी कर देता है. इसी प्रकार सरकार यदि वित्तीय घाटा बढ़ाकर ऋण ले और उसका निवेश करे तो उस निवेश से अर्जित आय से वह उस ऋण को अदा कर सकती है. इस मंत्न में गड़बड़ी तब होती है जब ऋण ली गई रकम का उपयोग लग्जरी कार खरीदने में किया जाता है क्योंकि उससे अतिरिक्त आय उत्पन्न नहीं होती है और ऐसे हालात में वह ऋण अर्थव्यवस्था पर एक बोझ बन जाता है.