भरत झुनझुनवाला का ब्लॉगः जनहित में हो आर्थिक विकास
By भरत झुनझुनवाला | Published: August 5, 2018 05:36 AM2018-08-05T05:36:23+5:302018-08-05T05:36:23+5:30
आज से दस साल पूर्व दैनिक वेतन लगभग सौ दो सौ रुपया हुआ करता था। वर्तमान में यह बढ़ कर 300 रु. हो गया है. लेकिन इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि श्रमिक के जीवन स्तर में सुधार आया है।
भरत झुनझुनवाला
माना जाता है कि आर्थिक विकास या जीडीपी में ग्रोथ अथवा सकल घरेलू उत्पाद से सहज ही जनहित हासिल हो जाएगा। आर्थिक विकास की प्रक्रिया में फैक्ट्रियां लगेंगी, श्रम की मांग बढ़ेगी और लोगों को रोजगार मिलेंगे। श्रम की मांग बढ़ने से श्रमिक का वेतन भी बढ़ेगा। आज से दस साल पूर्व दैनिक वेतन लगभग सौ दो सौ रुपया हुआ करता था। वर्तमान में यह बढ़ कर 300 रु. हो गया है. लेकिन इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि श्रमिक के जीवन स्तर में सुधार आया है। कारण यह कि श्रमिक के वेतन के साथ महंगाई भी बढ़ती है जो कि वेतन की बढ़ोत्तरी को निरस्त कर सकती है। जैसे किसी श्रमिक का वेतन बीते वर्ष तीन सौ रु. था और इस वर्ष 325 रु. हो गया. यह देखना होगा कि इसी अवधि में महंगाई में कितनी वृद्धि हुई। मान लीजिए कोई टेबल लैम्प बीते वर्ष 300 रु. का मिलता था और इस वर्ष 350 रु. का मिलता है. ऐसे में श्रमिक की सच्ची आय में गिरावट आई।
आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1998 से 2018 तक नगद वेतन लगातार बढ़ा है। लेकिन 1998 से 2010 के बीच श्रमिकों का सच्चा वेतन स्थिर रहा। इसमें जितना नगद वेतन बढ़ा, लगभग उतनी ही महंगाई बढ़ी और उनके जीवन स्तर में कोई विशेष अंतर नहीं आया। वर्ष 2010 से 2014 के बीच श्रमिक के सच्चे वेतन में वृद्धि हुई. इसके बाद वर्तमान एनडीए सरकार के आने पर वर्ष 2014 से 2016 में सच्चे वेतन में गिरावट आई। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्ष 2010 के लगभग देश में मनरेगा को लागू किया गया। श्रमिकों को अपने गांवों में निर्धारित वेतन सहज ही मिलने लगा। एनडीए सरकार के आने के बाद नगद वेतन में वृद्धि कम हुई लेकिन महंगाई में वृद्धि ज्यादा हुई जिसके कारण श्रमिक के सच्चे वेतन और उसके जीवन स्तर में गिरावट आ रही है। ध्यान देने की बात है कि वर्ष 1998 से आज तक हमारी आर्थिक विकास दर लगभग 7 या 8 प्रतिशत पर बनी रही है। यानी सच्चे वेतन में यूपीए-2 सरकार के समय जो वृद्धि हुई और एनडीए सरकार के समय जो गिरावट आ रही है इसका कारण विकास दर में परिवर्तन नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि आर्थिक विकास से श्रमिक के वेतन का जुड़ाव नहीं है।
आर्थिक विकास और श्रमिक के वेतन का जो अलगाव है उसका मूल कारण है कि हम अधिकाधिक पूंजी-सघन उत्पादन को अपना रहे हैं। विकास की प्रक्रिया में देश में पूंजी की आपूर्ति बढ़ती है फलत: ब्याज की दर में गिरावट आती है। जैसे 80 के दशक में बैंकों द्वारा लगभग 16 प्रतिशत की दर से ब्याज लिया जाता था जो कि आज 12 प्रतिशत हो गया है। पूंजी सस्ती होने से उद्यमियों के लिए लाभप्रद हो जाता है कि वे स्वचालित मशीनों से उत्पादन करें। आज उच्च क्षमता वाली तीन एक्सल की ट्रकें हैं जो 30 टन माल की ढुलाई करती हैं। पूर्व में इसी 30 टन की ढुलाई के लिए तीन ट्रक का उपयोग होता था। इनमें तीन ड्राइवर और तीन क्लीनर रोजगार पाते थे। इस प्रकार पूंजी सघन उत्पादन ने श्रम की मांग को गिरा दिया है और सच्चे वेतन में गिरावट आ रही है।
आर्थिक विकास के साथ-साथ जब मनरेगा जैसे स्पष्ट कदम उठाए जाते हैं जिससे श्रमिक के वेतन में वृद्धि हासिल होती है तभी आर्थिक विकास का लाभ आम आदमी तक पहुंचता है। अब प्रश्न बनता है कि सरकार किस प्रकार की नीतियां अपना सकती है। इस दिशा में सरकार के लिए कुछ संभावनाएं इस प्रकार हैं। जीएसटी में वर्तमान में किसी भी माल पर टैक्स की दर आरोपित करते समय यह नहीं देखा जाता है कि वह माल पूंजी सघन मशीनों से निर्मित हुआ है या श्रम सघन तरीकों से।
जैसे यदि ट्रांसपोर्टर को माल दिल्ली से कोलकाता पहुंचाना है तो जीएसटी की दर में इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि उसने माल ढुलाई में 10 टन ढुलाई करने वाले तीन ट्रकों का इस्तेमाल किया है अथवा तीस टन वाले एक ट्रक का। एक संभावना यह है कि सरकार जीएसटी की दरों का निर्धारण श्रम सघन और पूंजी सघन उत्पादनों को ध्यान में रखकर करे। दूसरी संभावना है कि सरकारी खरीद में पूंजी सघन माल का उपयोग किया जाए। जैसे सरकारी कर्मियों के यूनिफॉर्म को हथकरघे से उत्पादित कपड़े से बनवाया जा सकता है। ऐसा करने से बुनाई में श्रमिकों की मांग बढ़ेगी और तदनुसार उनके वेतन भी बढ़ेंगे।
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