'भगत सिंह को बचाने की पूरी कोशिश की थी बापू ने'
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 23, 2019 06:02 AM2019-03-23T06:02:07+5:302019-03-23T06:02:07+5:30
आज समूचा देश भगत सिंह और उनके साथियों का कृतज्ञ भाव से स्मरण कर रहा है.
विवेक शुक्ला
तारीख 7 मार्च, 1931. स्थान- एडवर्ड पार्क (अब सुभाष पार्क). उस दिन सारी दिल्ली से लोग वहां पर एकत्न हो रहे थे. वजह खास थी. महात्मा गांधी को एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करना था. वह सभा इसलिए आयोजित की गई थी ताकि भगत सिंह और उनके दोनों साथियों राजगुरु और सुखदेव को गोरी सरकार के फांसी के फंदे से बचा लिया जाए. उस सभा में गांधीजी ने कहा था- ‘ मैं किसी भी स्थिति में, किसी को फांसी की सजा देने को स्वीकार नहीं कर सकता हूं. मैं यह सोच भी नहीं सकता हूं कि भगत सिंह जैसे वीर पुरुष को फांसी हो.’
महात्मा गांधी उन दिनों दिल्ली में ही थे. वे दरियागंज में डा. एम.ए.अंसारी के घर में ही ठहरे हुए थे. डा. अंसारी कांग्रेस के नेता और बापू के निजी चिकित्सक थे. बापू उस दौरान ब्रिटिश वायसराय लार्ड इरविन से बार-बार भगत सिंह को फांसी के फंदे से मुक्ति दिलाने के लिए मिल रहे थे. वे 19 मार्च, 1931 को वायसराय हाउस ( अब राष्ट्रपति भवन) में जाकर लार्ड इरविन से मिले. उनका लार्ड इरविन से मिलने का एकमात्न मकसद भगत सिंह और उनके दो साथियों को किसी तरह फांसी से बचाना था. इस मुलाकात के बाद उन्हें कांग्रेस के कराची में होने वाले सत्न में शिरकत करने के लिए निकलना था. पर वे जब कराची जाने के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंचे तो उन्हें खबर मिली कि भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई है. ये 23 मार्च, 1931 की बात है.
लंदन के न्यू क्रॉनिकल के वरिष्ठ लेखक और पत्नकार रॉबर्ट बर्नसेज ने अपनी डायरी में लिखा था- ‘गांधी ने अपने कराची जाने के कार्यक्र म को एक दिन आगे बढ़ा दिया था ताकि वे लार्ड इरविन से भगत सिंह के संबंध में मिल सकें. वे 21 और 22 मार्च को लार्ड इरविन से पुन: मिलते हैं. वे दोनों बार अपनी मांग को दोहराते हैं. उन्हें कुछ उम्मीद की किरण नजर आती है, इसलिए वे 23 मार्च की सुबह इरविन को एक पत्न लिखते हैं. इसमें वे इरविन को ‘प्रिय मित्न’ के रूप में संबोधित करते हैं. दुर्भाग्यवश गांधीजी के सभी प्रयास विफल रहते हैं. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च, 1931 को फांसी के फंदे पर लटका दिया जाता है.’
गांधी कहते हैं- ‘मैं जितने तरीकों से वायसराय को समझा सकता था, मैंने कोशिश की. मेरे पास समझाने की जितनी शक्ति थी, वो मैंने इस्तेमाल की. 23वीं तारीख की सुबह मैंने वायसराय को एक निजी पत्न लिखा जिसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेल दी थी..’ बहरहाल, आज समूचा देश भगत सिंह और उनके साथियों का कृतज्ञ भाव से स्मरण कर रहा है.