संपादकीय: इस मर्तबा बातचीत से सुलझ ही जाए अयोध्या विवाद
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 10, 2019 07:49 AM2019-03-10T07:49:35+5:302019-03-10T07:49:35+5:30
सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद भूमि विवाद के सर्वमान्य हल के लिए मध्यस्थता पर मुहर लगा दी. हालांकि दो समुदायों के दिल-दिमाग और भावना से जुड़े इसे मसले को सुलझाने के लिए पहले भी इस तरह के प्रयास हो चुके हैं. लेकिन, बात कभी बनी ही नहीं या..!
खैर, अब शीर्ष अदालत ने जब तीन मध्यस्थों के दल के साथ एक बार फिर बातचीत का मार्ग प्रशस्त किया है, तो अबकी बार यह अंजाम तक पहुंच ही जाए. क्योंकि 2010 में आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले (अयोध्या में 2.77 एकड़ की विवादित भूमि तीनों पक्षकारों सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला में बराबर बांट दी जाए) को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और इस पर 14 याचिकाएं दायर हुईं.
ताजा मामला ही देख लीजिए, अदालत के फैसले के बाद से मध्यस्थों के नाम पर ही महाभारत छिड़ी हुई है. वहीं सवाल उठ रहे हैं कि ऐसी किसी मध्यस्थता से निकले हल को लागू कर पाना कितना संभव होगा? कहने का तात्पर्य यह है कि मध्यस्थता वाले इस फामरूले से हल निकल ही जाए और यह सभी पक्षों को मान्य हो यह जरूरी नहीं है. लेकिन एक बात पक्की है कि इसके सहारे एक और आम चुनाव निकल ही जाएगा.
क्योंकि किसी बड़े धमाके से बचने के लिए चुनाव पूर्व बन रहे रामजन्म भूमि के प्रेशर को कुशल मैकेनिक की तरह पाइप लाइन के जरिए मोड़ दिया गया है, जिससे बचे-खुचे दबाव को सेफ्टी वॉल्व के रास्ते निकाला जा सके. क्योंकि यह फामरूला इतना सटीक है कि तात्कालिक तौर पर ये लोगों के भीतर पनप रही नाराजगी पर न सिर्फ ब्रेक लगाने का काम करेगा, बल्कि यह अहसास भी बनाएगा कि कार्य प्रगति पर है.
1992 में विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद से देश ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. लगभग तीन दशक बीत जाने के बाद भी वक्त का मरहम इस घटनाक्रम से सामाजिक समरसता पर उभरे जख्मों को भर नहीं पाया. कुल मिलाकर आप-हम तो यही कामना कर सकते हैं कि मध्यस्थता का फामरूला सफल रहे और मामला दोबारा कोर्ट में न पहुंचे!