अवधेश कुमार का ब्लॉग: भीड़ की हिंसा को हर हाल में रोकना होगा
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: July 9, 2019 12:35 PM2019-07-09T12:35:00+5:302019-07-09T12:35:00+5:30
पिछले वर्ष मई में उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई करते हुए कहा था कि 10 वर्षो में 86 वारदातें हुईं जिनमें 33 लोग मारे गए. यह संख्या अब काफी बढ़ गई है. किंतु इस आंकड़े से पता चलता है कि भीड़ की स्वयं जंगल न्याय करने की खतरनाक प्रवृत्ति हमारे समाज में लंबे समय से है.
भीड़ की हिंसा हमारे देश में लंबे समय से चिंता का कारण है. इस समय झारखंड में तबरेज नामक एक व्यक्ति के भीड़ से पिटते और उससे जय श्रीराम और जय हनुमान बुलवाते हुए एक वीडियो वायरल है. तबरेज की अस्पताल में मृत्यु हो गई. दूसरी घटना दो वर्ष पहले अलवर में पहलू खान की पिटाई का मामला है.
अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई थी. वह भी भीड़ की हिंसा का मामला था. अब अलवर पुलिस ने जो आरोप पत्न दायर किया है उसमें मृतक पहलू खान को गो-तस्कर बताया गया है. आरोप पत्न में पहलू, उसके बेटों इरशाद और आरिफ पर राजस्थान गोजातीय पशु अधिनियम के तहत आरोपी बनाया गया है. अप्रैल 2017 में पहलू खान से गो-तस्करी के शक में भीड़ ने मारपीट की थी.
इससे पहले 2018 की शुरु आत में राज्य की भाजपा सरकार के दौरान भी पहलू खान के दो साथियों के खिलाफ इसी तरह का आरोप पत्न दायर किया गया था. इन लोगों की भी भीड़ ने पिटाई की थी. पूरे मामले में दो प्राथमिकियां दर्ज हुईं थीं. एक में पहलू और उसके परिवार पर हमला करने वाली भीड़ को आरोपी बनाया गया. दूसरी प्राथमिकी पहलू खान और उसके परिवार के खिलाफ दर्ज की गई. मामला न्यायालय में है.
लेकिन मूल बात इसके कानूनी पहलू नहीं हैं. मूल बात भीड़ की यह बढ़ती खतरनाक प्रवृत्ति है कि हमने किसी को अपराध करते या अपराध के शक में पकड़ा तो कानून व्यवस्था की एजेंसियों को सुपुर्द करने के सामान्य नागरिक कर्तव्य की जगह हिंसा के द्वारा त्वरित न्याय करने पर उतारू हो जाते हैं. इसे जो लोग आज या कल की प्रवृत्ति कहते या किसी विशेष संगठन से जोड़ते हैं यह उनकी समस्या है.
पिछले वर्ष मई में उच्चतम न्यायालय ने सुनवाई करते हुए कहा था कि 10 वर्षो में 86 वारदातें हुईं जिनमें 33 लोग मारे गए. यह संख्या अब काफी बढ़ गई है. किंतु इस आंकड़े से पता चलता है कि भीड़ की स्वयं जंगल न्याय करने की खतरनाक प्रवृत्ति हमारे समाज में लंबे समय से है.
हमें समझना होगा कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में हमें स्वयं पुलिस, न्यायालय और जल्लाद तीनों की भूमिका नहीं निभानी है. आप हिंसा करते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया में प्रतिहिंसा हो सकती है जिसका शिकार कोई और हो सकता है. यह प्रवृत्ति रुके इसके लिए जो भी संभव हो किया जाना चाहिए. उच्चतम न्यायालय ने केंद्र एवं राज्य सरकारों को पिछले वर्ष कुछ निर्देश दिए थे, जिसके बाद कार्रवाई में तेजी दिखी भी.
जिला स्तर पर इसके लिए पुलिस संरचना बनाने की बात थी. केंद्रीय गृह मंत्नालय ने भी एडवाइजरी जारी की थी. अलग से कानून बनाने की भी बात हुई. इस दिशा में जो हुआ वह देश के सामने आना चाहिए और जो नहीं हुआ उसे जल्दी किया जाना चाहिए.