विरोधियों को भी जीतने वाले अटल जी
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 18, 2018 03:33 PM2018-08-18T15:33:01+5:302018-08-18T15:33:01+5:30
अटल बिहारी वाजपेयीजी का व्यक्तित्व महासागर की तरह था। इसीलिए देशहित में कठोर निर्णय करने वाले इस महान नेता को संयमी शख्सियत के रूप में पहचाना जाता था।
(लेखक-डॉ. शरद कलणावत)
अटल बिहारी वाजपेयीजी का व्यक्तित्व महासागर की तरह था। इसीलिए देशहित में कठोर निर्णय करने वाले इस महान नेता को संयमी शख्सियत के रूप में पहचाना जाता था। मैं विद्यार्थी जीवन से अटलजी के व्यक्तित्व से आकर्षित था। नागपुर के सिटी कॉलेज में पढ़ते वक्त मुङो पहली बार उनका भाषण सुनने का मौका मिला था। चिटणवीस पार्क में रात को सन् 1953 में उनका भाषण हुआ। जिन लोगों का राजनीति से कोई संबंध नहीं था, वे भी उनका भाषण सुनने आए थे।
उस भाषण में वाजपेयीजी ने कांग्रेस तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू पर जमकर प्रहार किया था। उन्होंने कहा था, ‘नेहरूजी की दशा शिवजी जैसी है। भोले शंकर अपने दोनों हाथों में पार्वतीजी का निष्प्राण कलेवर लेकर बेतहाशा दौड़ रहे हैं। क्या उसमें प्राण फूंके जा सकते हैं। कभी भी नहीं।’ अपने विरोधियों को देवता की उपाधि देना अटलजी जैसे उदारमना नेता ही कर सकते थे। कांग्रेस के नेताओं की आलोचना करने के लिए उन्होंने कभी भी अनुचित शब्दों का प्रयोग नहीं किया। उस भाषण में उन्होंने कांग्रेस के लिए निष्प्राण पार्वती और पं। नेहरू के लिए भोले शंकर रूपक का प्रयोग किया। ऐसी शालीन भाषा का प्रयोग आजकल के राजनेता नहीं करते। सन् 1971 में युद्ध में पाकिस्तान को धूल चटाने और बांग्लादेश का निर्माण करने के लिए अटलजी ने अपनी राजनीतिक विरोधी इंदिरा गांधी को दुर्गा की संज्ञा दी थी। इस पर कई लोगों को आश्चर्य हुआ था। मगर यह अटलजी की संस्कृति थी।
चिटणवीस पार्क की सभा के बाद हमारे सिटी कॉलेज में भी अटलजी का भाषण हुआ। वह डेढ़ घंटे तक विद्यार्थियों को संबोधित करते रहे। मगर पूरे भाषण में उन्होंने कहीं भी राजनीति का स्पर्श तक नहीं किया। उनके भाषण का विषय था ‘उत्तर प्रदेश में दहेज प्रथा’। उन्होंने कहा, ‘उत्तर प्रदेश की जो कन्याएं अविवाहित रहती हैं, उसका कारण यह नहीं कि उनमें अच्छे गुण नहीं होते। सच कहूं तो गुणों के ग्राहक ही नहीं होते।’ अटलजी की यह शैली सीधे दिल में उतर जाती थी। वह जब आलोचना करते थे तो विरोधियों को भी प्रिय लगती थी।
अटलजी का अंत:करण निर्मल था। इसीलिए वह जो आलोचना करते थे, उसमें भी पवित्रता रहती थी। आज के राजनेताओं ने अटलजी की इस विरासत को धूल में मिला दिया है। राजनीतिक चर्चा में अगर ‘जनता’ को केंद्र बिंदु बनाना हो तो अटलजी की राजनीतिक विरासत को सहेजना बेहद जरूरी है।