गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉगः जनता की राजनीति और राजनीति की जनता
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 14, 2018 08:59 PM2018-12-14T20:59:04+5:302018-12-14T20:59:04+5:30
चुनावी दौर में नेताओं के उद्गारों में जनता के आदर्श और विराट रूप के दर्शन होते हैं. जनता के हर दु:ख दर्द को पहचाना जाता है, धो-पोंछ कर उसकी मरहम पट्टी की जाती है और दवा दारू का इंतजाम भी किया जाता है. यह सब अक्सर फौरी तौर पर आपातकालीन व्यवस्था की तरह किया जाता है क्योंकि राजनेताओं के पास जनता का कोई दूसरा विकल्प ही नहीं होता है.
गिरीश्वर मिश्र
यह विश्वास कि राजनीति स्वभाव से ही जनता के लिए समर्पित होती है (या होनी चाहिए) आज भी आम आदमी के मन में बैठा हुआ है. इस हिसाब से राजनेता जनता का हिस्सा होता है, ऐसा हिस्सा जो जनता का हित साध सके. अत: नेता होने के लिए समर्पण, सेवा और नि:स्वार्थ भाव से समाज के पीड़ितों की सहायता तथा उद्धार की प्रवृत्ति स्वाभाविक जरूरत हुआ करती है. नेता कभी जन-नेता होते थे. अपनी संपत्ति बढ़ाना और साम्राज्य स्थापित करना उनका एजेंडा नहीं होता था. पर आज के नेताओं की बात कुछ और है. अब कमोबेश सभी नेता सत्ता के पास पहुंचते ही धनार्जन की दौड़ लगाना शुरू करते हैं और देखते-देखते करोड़ों रुपए एकत्न कर लेते हैं.
चुनावी दौर में नेताओं के उद्गारों में जनता के आदर्श और विराट रूप के दर्शन होते हैं. जनता के हर दु:ख दर्द को पहचाना जाता है, धो-पोंछ कर उसकी मरहम पट्टी की जाती है और दवा दारू का इंतजाम भी किया जाता है. यह सब अक्सर फौरी तौर पर आपातकालीन व्यवस्था की तरह किया जाता है क्योंकि राजनेताओं के पास जनता का कोई दूसरा विकल्प ही नहीं होता है.
पक्ष-विपक्ष दोनों द्वारा जन-व्यथा और भव-बाधा की जो फेहरिस्त बनती है वह कार्यरूप में आ जाए तो क्षेत्न को स्वर्गोपम बनाने के लिए पर्याप्त होती है. पर जमीनी हालात मुश्किलों भरे रहे हैं. सरकारें जनता को लुभाने के लिए कर्ज और छूट (सब्सिडी) देने की नीति अपनाती हैं. विभिन्न योजनाओं में पैसे बांट-बांट कर जनता में मुफ्तखोरी की आदत डाली जाती है और कई बार इन योजनाओं के अंतर्गत धनी और दबंग लोग अपनी शक्ति के आधार पर गरीबों के नाम पर कर्ज लेते हैं और कुछ हिस्सा उन्हें देकर अधिकांश हड़प कर जाते हैं.
कर्ज लेकर असफल खेती से कर्ज न चुकाने की स्थिति में निजात पाने के लिए किसानों की आत्महत्या के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं. बैंक भी बड़े-बड़े कर्जदारों को कर्ज देकर मुश्किल में पड़ रहे हैं. समाज के मध्य वर्ग यानी मिडिल क्लास के ऊपर टैक्स बढ़ते ही जा रहे हैं. वे अक्सर ईमानदारी से टैक्स भी भरते हैं पर महंगाई की मार के आगे उनका कुछ बस नहीं चलता.
चुनाव के समय जनता को अवसर मिलता है. आज का जन अपने मत के मंत्न का उपयोग करते हुए राजनेताओं को संदेश देता है और उनकी औकात भी बताता है. जनता धीरे-धीरे नेताओं के वचनों से बुने और परोसे गए यथार्थ के मकड़जाल की असलियत का अंदाजा लगा रही है और राजनीति के रणनीतिकारों के लिए उनकी मनमानी सवारी अब आसान नहीं रही, उसे पैंतरेबाजी और दांवपेंच की भी समझ हो रही है. राजनीति के आख्यान में जनता अपनी जगह पहचानने लगी है और पूर्वनिश्चित कथानक का हिस्सा न बन कर स्वयं भी कथा में जोड़ने घटाने लगी है. वह महाभारत के व्यास की तरह लेखक और पात्न दोनों की भूमिका में आ रही है. आशा है चुनावी संकेत राजनेताओं को समझ आएंगे और वे समाज के कल्याण की बात सोचेंगे.