पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः बदलाव की राह पर चलती राहुल की कांग्रेस
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: December 15, 2018 05:41 AM2018-12-15T05:41:03+5:302018-12-15T05:41:03+5:30
महत्वपूर्ण यह है कि इन सारी संभावनाओं को अपनाना कांग्रेस की मजबूरी भी है और जरूरत भी है क्योंकि राहुल गांधी इस हकीकत को भी समझ रहे हैं कि कांग्रेस को खत्म करने के लिए मोदी-शाह उसी कांग्रेसी रास्ते पर चले जहां निर्णय हाईकमान के हाथ में होता है और हाईकमान की बिसात उनके अपने नेताओं के जरिए बिछाई गई होती है.
अगर कांग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को खोल दिया जाए तो क्या होगा. यह सवाल करीब दस बरस पहले राहुल गांधी ने ही सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक से पूछा था और तब उस विश्लेषक महोदय ने अपने मित्नों से बातचीत में इसका जिक्र करते हुए कहा कि राहुल गांधी राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते हैं. लेकिन, अगर अब कांग्रेस के मुख्यमंत्नी के चयन को लेकर राहुल गांधी के तरीके को समझो तो लगता यही है कि वाकई बोतल में बंद कांग्रेस पर लगे हाईकमान के ढक्कन को उन्होंने खोल दिया है. और चूंकि ये पहली बार हो रहा है तो न पारंपरिक कांग्रेस इसे पचा पा रही है न ही मीडिया के ये गले उतर रहा है. और बार-बार जिस तरह मोदी-शाह की जुगलबंदी ने इंदिरा के दौर की कांग्रेस के तौर तरीकों को ज्यादा कठोर तरीकों से अपना लिया है उसमें दूसरे राजनीतिक दल भी इस हकीकत को समझ नहीं पा रहे हैं कि राहुल की कांग्रेस बदलाव की राह पर है.
ये रास्ता कांग्रेस की जरूरत इसलिए हो चला है क्योंकि कांग्रेस मौजूदा वक्त में सबसे कमजोर है. पारंपरिक वोट बैंक खिसक चुके हैं. पुराने बुजुर्ग व अनुभवी कांग्रेसियों के समानांतर युवा कांग्रेस की एक नई पीढ़ी तैयार हो चुकी है. और संगठन से लेकर राज्य और केंद्र तक के हालात को उस धागे में पिरोना है जहां कांग्रेस का मंच सबके लिए खुल जाए. यानी सिर्फ किसानों के बीच काम करने वालों में से कोई नेता निकलता है तो उसके लिए भी कांग्रेस में जगह हो और दलित या आदिवासियों के बीच से कोई निकलता है तो उसके लिए भी अहम जगह हो. और तो और भाजपा में भी जब किसी जनाधार वाले नेता को ये लगेगा कि अमित शाह की तानाशाही तो उसके जनाधार को ही खत्म कर उसे बौना कर देगी तो उसके लिए भी कांग्रेस में आना आसान हो जाएगा.
महत्वपूर्ण यह है कि इन सारी संभावनाओं को अपनाना कांग्रेस की मजबूरी भी है और जरूरत भी है क्योंकि राहुल गांधी इस हकीकत को भी समझ रहे हैं कि कांग्रेस को खत्म करने के लिए मोदी-शाह उसी कांग्रेसी रास्ते पर चले जहां निर्णय हाईकमान के हाथ में होता है और हाईकमान की बिसात उनके अपने नेताओं के जरिए बिछाई गई होती है. तो राहुल ने हाईकमान के ढक्कन को कांग्रेस पर से ये कहकर उठा दिया कि सीएम वही होगा जिसे कार्यकर्ता और विधायक पसंद करेंगे. और ध्यान दें तो ‘शक्ति एप्प’ के जरिए जब राहुल गांधी ने विधायक-कार्यकर्ताओं के पास ये संदेश भेजा कि वह किसे मुख्यमंत्नी के तौर पर पसंद करते हैं तो शुरु आत में मीडिया ने इस पर ठहाके ही लगाए. लेकिन ‘शक्ति एप्प’ के जरिए जमा किया डाटा जब सिंधिया को दिखाया गया तो सिंधिया के पास भी दावे के लिए कोई तर्क था नहीं. और जो लोग 84 के सिख दंगों का जिक्र कर कमलनाथ को रोकना चाह रहे थे उनकी भी नहीं चली. क्योंकि वक्त बदल चुका है और कांग्रेस को भी बदलना है.
यही स्थिति राजस्थान की है. पहली नजर में लग सकता है कि बीते चार बरस से जिस तरह सचिन पायलट राजस्थान में कांग्रेस को खड़ा करने के लिए जान डाल रहे थे उस वक्त अशोक गहलोत केंद्र की राजनीति में सक्रि य थे. याद कीजिए गुजरात-कर्नाटक में गहलोत की सक्रियता. लेकिन यहां फिर सवाल डाटा का है. और पायलट के सामने गहलोत आ खड़े हो गए तो उसकी सबसे बड़ी वजह गहलोत की अपनी लोकप्रियता जो उन्होंने मुख्यमंत्नी रहते ही बनाई. माना जाता है कि गहलोत के वक्त भाजपा नेताओं के भी काम हो जाते थे और वसुंधरा के दौर में भाजपा नेताओं को भी दुष्यंत के दरबार में चढ़ावा देना पड़ता था. उसे सचिन का राजनीतिक श्रम भी तोड़ नहीं पाया.
कमोबेश छत्तीसगढ़ में भी यही हुआ. फिर सवाल कांग्रेस के उस ढक्कन को खोलने का है जिसमें कार्यकर्ता को ये न लगे कि हाईकमान के निर्देश पर पैराशूट सीएम बैठा दिया गया है. जाहिर है इसके खतरे भी हैं और भविष्य की राजनीति में सत्ता तक न पहुंच पाने का संकट भी है.
जाहिर है पारंपरिक कांग्रेसियों के लिए ये झटका है लेकिन राहुल गांधी की राजनीति को समझने वाले पहली बार ये भी समझ रहे हैं कि कांग्रेस को आने वाले पचास वर्षो तक अपने पैरों पर खड़ा होना है या क्षत्नप या दूसरे राजनीतिक दलों के आसरे चलना है. फिर राहुल गांधी के पास गंवाने के लिए भी कुछ नहीं है (कमजोर व थकी हुई कांग्रेस के वक्त राहुल गांधी अध्यक्ष बने) लेकिन पाने के लिए कांग्रेस के स्वर्णिम अतीत को कांग्रेस के भविष्य में तब्दील करना है. इसके लिए सिर्फ कांग्रेसी शब्द से काम नहीं चलेगा बल्कि बहुमुखी भारत के अलग अलग मुद्दों को कांग्रेस की छतरी तले कैसे समेट कर समाधान की दिशा दिखाई जा सकती है अब सवाल उसका है.