समीक्षा: जयललिता के अम्मू से 'अम्मा' बनने की कहानी
By प्रतीक्षा कुकरेती | Published: May 20, 2019 07:05 PM2019-05-20T19:05:08+5:302019-05-20T19:18:25+5:30
जयललिता पढ़ने में बहुत तेज थीं. वह बचपन से ही डॉक्टर, वकील या आईएस ऑफिसर बनना चाहती. एक्टिंग करियर से तो वह बहुत चिढ़ती थीं, क्योंकि उनको लगता था की किसी एक्ट्रेस को कभी इज्जत नहीं मिलती, मिलती है तो सिर्फ बदनामी.
बचपन से लेकर अब तक जब भी जयललिता का ज़िक्र होता था उनकी एक छवि मेरे ज़ेहन में घुमती थी. गोरा रंग, सुंदर आँखों वाली, पावरफुल अम्मा जिन्हें साउथ के लोग देवी स्वरूप मानते थे. बहुतेरों ने उन्हें शायद इससे ज्यादा कभी समझा ही नहीं. वासंती की किताब 'अम्मा' पढ़ने से पहले तक जयललिता मेरे लिए सिर्फ एक एक्ट्रेस और पॉलिटिशियन थीं, लेकिन इस किताब को पढ़ने के बाद मेरा उनके बारे में नजरिया बदल गया.
जयललिता की इस जीवनी को पढ़कर मैंने जाना कि कैसे किसी महिला में इतनी ताकत, सहजता और बोल्डनेस हो सकती है. कैसे किसी में इतना धैर्य और आत्मसम्मान हो सकता है. बचपन से लेकर बुढ़ापे तक जयललिता सिर्फ तन्हा ही रही. हर रिश्ते से उन्हें सिर्फ धोखा या दुःख मिला. ना माँ-बाप का प्यार पूरा मिला, ना दोस्तों का साथ, ना ही पत्नी का कोई दर्जा. उनकी ज़िन्दगी के साथ उनकी मौत भी रहस्यमई ही रही. वह अभिमानी भी थीं और स्वाभिमानी भी. लेकिन इतने नाम और शोहरत के बाद भी उनका जीवन अधूरा ही रहा.
जयललिता का बचपन बड़ा ही उथल-पुथल वाला रहा. दो साल की उम्र में अम्मू (जयललिता के बचपन का नाम) के पिता का देहांत हो गया. माँ संध्या अभिनेत्री थीं, उनके पास अम्मू के लिए वक़्त नहीं था. अम्मू कभी बेंगलोर अपने ननिहाल रही तो कभी अपनी माँ के पास चेन्नई. अम्मू एक होशियार और ब्राइट स्टूडेंट थी. स्कूल में उनकी खूब प्रशंसा होती थी. लेकिन अपनी खुशियाँ बाटने के लिए उनके पास माँ कभी नहीं होती थी.
जयललिता का बचपन
वासंती की किताब में एक बड़ा ही अच्छा किस्सा है जिसे पढ़कर दिल पसीज जाता है. एक बार स्कूल में अम्मू को माँ पर निबंध लिखना था. अम्मू ने बड़ा ही प्यारा निबंध अपनी माँ के लिए लिखा, जिसका शीर्षक था - 'मेरी माँ- मेरे लिए उसके क्या मायने हैं'. अपने इस लेख के लिए स्कूल में अम्मू को पुरस्कार भी मिला. लेकिन दो दिनों तक अम्मू अपनी माँ से नहीं मिल पाई. अगले दिन वह पूरी रात जागी रही। अपनी माँ को वह निबंध सुनाने के लिए. जब माँ आई तब अम्मू गहरी नींद में थी. माँ ने जब अम्मू के सीने से लगी किताब को उठाया तो अम्मू जग गई. अम्मू के आँखों से आंसू बंद नहीं हो रहे थे. अम्मू ने अपनी माँ को बताया कैसे वह दो दिन तक उनका इंतज़ार करती रहीं. माँ ने अम्मू से वादा किया कि आगे से ऐसा कभी नहीं होगा. लेकिन ऐसा हमेशा हुआ.
खैर, अम्मू का बचपन कुछ ऐसा ही रहा. अकेला, उथल-पुथल वाला और बेचैन, जहां स्कूल में सब बच्चों के पैरेंट्स उन्हें लेने आते थे और वह लाड से अपना बैग अपनी माँ को दे देते थे तो वह ही अम्मू की गाड़ी लेट आती थी. जब स्कूल में अम्मू को बेस्ट आउटगोइंग स्टूडेंट का शील्ड मिला, जिसमें पूरे स्टेट में उन्हें सेकेंड पोजीशन मिली तो उस पुरस्कार समारोह में भी उनके घर से कोई नहीं आया. स्कूल में अपनी दोस्त श्रीमती से वो अक्सर कहती थीं कि 'मेरी चिंता किसी को नहीं है.' कई बार लगता है कि जयललिता के अंदर प्रेम और अपनत्व न मिलने की गहरी पीड़ा बचपन से ही घर कर गई थी.
जब जयललिता ने समझा विश्वासघात का मतलब
वासंती की किताब में इस बात का जिक्र है कि किस तरह जयललिता को बचपन में ही विश्वासघात शब्द का मतलब समझ में आ गया था. दरअसल जब जयललिता 13 साल की थीं, तब पड़ोस की एक लड़की से उनकी दोस्ती हुई. जयललिता को भी अपना अकेलापन दूर करने का एक सहारा मिल गया. उनकी मित्र अक्सर अपने बॉयफ्रेंड से मिलने छत पर आती थी. अम्मू भी अपनी दोस्त से छत पर ही मिलती थीं. एक दिन इस इशारेबाज़ी को एक दूधवाली ने देख लिया. इस बात की शिकायत उसने उस लड़की की माँ से करते हुए कहा कि अभिनेत्री की बेटी से अपनी लड़की को दूर रखो नहीं तो वह बिगड़ जाएगी. जब कुछ दिनों तक उनकी दोस्त उनसे मिलने नहीं आई तो अम्मू उसके घर गईं. उनकी दोस्त ने अपनी माँ के सामने उन्हें उनसे दूर रहने को कहा, क्योंकि अम्मू उन्हें लड़कों से मिलने को कहती है और बिगाड़ती है. जयललिता इस बात से बहुत आहत हुई. उनके लिए ये एक सबक था. कैसे उनकी माँ का फिल्म अभिनेत्री होना उनके लिए एक अभिशाप बन गया था.
जयललिता पढ़ने में बहुत तेज थीं. वह बचपन से ही डॉक्टर, वकील या आईएस ऑफिसर बनना चाहती. एक्टिंग करियर से तो वो बहुत चिढ़ती थीं क्योंकि उनको लगता था की किसी एक्ट्रेस को कभी इज्जत नहीं मिलती, मिलती है तो सिर्फ बदनामी. घर पर अम्मू की माँ से मिलने आये एक्टर और प्रोडूसर उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थे. इतना ही नहीं उनकी माँ भी यही चाहती थी कि जयललिता फिल्मी दुनिया से दूर रहें. अम्मू की माँ जब भी उन्हें शूटिंग के सेट पर ले जाती थीं तब उन्हें बहुत गुस्सा आता था. उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था वो शोर-शराबे वाला माहौल.
कई बार उन्होंने अपनी माँ से इस बात की शिकायत भी की. इतना ही नहीं उन्होंने अपनी माँ से इस बात की शिकायत की थी कि फिल्मी दुनिया के पुरुष बहुत ही बदतमीज़ और असभ्य होते हैं और उसे 'कामुक' नजरों से घूरते हैं. इस एक लाइन में उनके किशोरावस्था में महसूस किए गए दर्द और अंदर दबे हुए क्रोध को महसूस किया जा सकता है. हर मर्द उसे गन्दी नजरों से देखता था. अम्मू की इच्छाएं कुछ और थी. लेकिन बिन बाप की बेटी का वो दर्द जिसे हर मर्द छूना चाहता था शायद समझना मुश्किल था. क्योंकि फिल्मी दुनिया की उस चमकती दुनिया में उनकी इच्छाएं दब गई थीं. अम्मू और ज्यादा पढ़ना चाहती थी. लेकिन कहीं ना कहीं उसकी ये ख्वाहिश दब रही थी. किस्मत को कुछ और ही मंजूर था और आखिर अम्मू की राह फिल्मों की चमकती दुनिया की ओर चली गई थी.
अधूरा रह गया जयललिता का सपना
जब स्कूल खत्म हुआ तो अम्मू आगे कॉलेज में पढ़ना चाहती थी. उन्होंने अपनी मित्र श्रीमती से उनका फॉर्म भरने को कहा और बोला जो कोर्स वो भर रही हूँ वो ही उनका भी भर दो. विधाता को कुछ और ही मंजूर था. इसी बीच जयललिता फिल्मों की शूटिंग में व्यस्त हो गईं. सेशन के फर्स्ट डे जब वह कॉलेज गई तब ना तो हाथ में कोई किताब थी ना कोई पेन. जब टीचर ने उनसे कुछ सवाल पूछे तो वो एक का भी जवाब नहीं दे पाईं. इस बात पर टीचर को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने जयललिता को खूब सुनाया और कहा कि कॉलेज सिर्फ तैयार होकर अच्छे कपड़े पहनने के ले लिए आती हो? उस दिन कॉलेज के बाद जब जयललिता घर गईं तो वो दोबारा स्कूल वापिस नहीं गईं और इसी तरह अम्मू का आगे पढ़ने का सपना अधूरा रह गया और वह फिल्मी दुनिया की तरफ बढ़ गईं.
अपने फिल्मी करियर के दौरान वो काफी अनुशासित और गरिमामय तरीके से रहती थीं. एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) से उनका रिश्ता जगजाहिर था. जब जयललिता 21 साल की थीं तब उनकी माँ उन्हें फिल्मी दुनिया में, 'जहां हर मर्द उन्हें कामुक नजरों से देखते थे', छोड़कर भगवान के घर चली गईं. शायद यही वजह थी कि 21 साल की वह लड़की जो बचपन से प्यार की मोहताज थी, एक शादीशुदा मर्द की बाहों में अपने आप को महफूज़ समझने लगी. उनके इस रिश्ते को लेकर अनगिनत किस्से बनें, बातें हुईं. किसी ने उन्हें 'दूसरी औरत' कहा तो किसी ने एमजीआर की 'रखैल' कहा. जयललिता एमजीआर के साथ अपने रिश्ते को नाम देना चाहती थीं. उन्होंने कई बार एमजीआर से शादी के लिए कहा लेकिन किसी न किसी कारणवश यह हो ना पाया. एमजीआर ने भले ही उनसे शादी न की हो लेकिन वह जयललिता को अपनी 'जागीर' की तरह रखते थे. वह क्या पहनती हैं, कहां जाती हैं, किस से बात करती है सब पर उनकी नज़र रहती थी. इतना ही नहीं जयललिता ख़ुद के कमाए पैसों के लिए भी उनके आगे हाथ फैलाती थीं.
एमजीआर के जाने के बाद जयललिता
जब एमजीआर का निधन हुआ तो जयललिता को काफी ज़िल्लत सहनी पड़ी थी. एमजीआर की पत्नी जानकी से लेकर, पार्टी के कार्यकर्ताओं और ना जाने किसने-किसने उनके लिए अनगिनत अपशब्दों का इस्तेमाल किया. इन सबका उन्होंने मजबूती से सामना किया.
किताब पढ़ने के दौरान ज़हन में एक सवाल बार-बार आता रहा कि क्या जीवन था अम्मा का? बचपन से बुढ़ापे तक वो अपनी ख्वाहिशों को दबाती रहीं. प्यार मिला भी तो उस प्यार ने पूरी तरह उन्हें नहीं अपनाया, ना वह उस पर अपना पूरा हक जता सकीं. नाम शोहरत सब रहे लेकिन उनके जीवन में हमेशा एक खालीपन और अधूरापन रहा.
अम्मा को प्यार करने वाला या उनकी परवाह करने वाला आखिर था कौन? ना माँ, ना दोस्त, ना पति, ना बच्चे. उनसे जुड़े हर रिश्ते में एक स्वार्थ जुड़ा हुआ था. जिस शशिकला के लिए उन्होंने इतना किया वो भी उनकी अपनी ना हो सकी. लेकिन तमिलनाडु की जनता के लिए वो ईश्वर का दूसरी रूप थीं. वासंती की किताब पढ़ने के बाद मेरे मन में उनके लिए बहुत इज्ज़त बढ़ गई. जीवन में इतना कुछ झेलने के बाद भी अम्मा ने वो कर दिखाया था जो किसी के लिए मुमकिन नहीं था.
वासंती की किताब पढ़ने के बाद मेरी तरह शायद आपको भी लगे कि एक सफल अभिनेत्री और राजनेता रहने के बावजूद भी अम्मा के जीवन में एक कसक थी, जो कभी पूरी नहीं हो सकी.
किताब- अम्मा, लेखक-वासंती, प्रकाशक-जगरनॉट,नई दिल्ली, मूल्य-299 रुपये