अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: टेस्टिंग के जाल में क्या फंस गया है कोरोना
By अमिताभ श्रीवास्तव | Published: July 29, 2020 09:49 AM2020-07-29T09:49:47+5:302020-07-29T09:49:47+5:30
मार्च माह में साढ़े चार हजार ‘कोरोना टेस्टिंग’ से आरंभ हुई वैश्विक महामारी के खिलाफ देश की लड़ाई अब साढ़े पांच लाख टेस्टिंग के करीब पहुंच गई और आने वाले दिनों में इसे दस लाख प्रतिदिन तक पहुंचाने का इरादा पक्का किया गया है. भविष्य में जिसे अमेरिका की आठ लाख टेस्टिंग से भी आगे माना जाएगा. इतना सब होने के बावजूद देश और दुनिया में कोरोना संकट कहीं टलता नहीं दिख रहा है.
हर माह संक्रमण का सर्वोच्च बिंदु पाने की नए माह की घोषणा होने के बाद इंसान का जिंदगी के साथ संघर्ष बढ़ता जा रहा है. वह चाहते और न चाहते हुए भी एक टीके की आस में सिर्फ इसलिए बैठा है, क्योंकि वह अपने जीवन की उन सहूलियतों को वापस पाना चाहता है, जिन्हें उसने न केवल खो ही दिया है, बल्कि समय ने उन्हें तहस-नहस कर दिया है.
वैश्विक महामारी कोरोना की भारत में पहचान जनवरी माह के आखिरी सप्ताह में ही हो गई, जब चीन से केरल में मरीज आया था. उसके बाद फरवरी माह सोचने और समझने में गया. मार्च आते-आते कोरोना की देश में आने की आहट मिलने लगी थी. मार्च माह के ही दूसरे सप्ताह से कोरोना ने अपने पांव फैलाने शुरू कर दिए थे. बाद की कहानी तो किसी से छिपी नहीं है.
दरअसल कोरोना के संक्रमण में शुरुआत में ही टेस्टिंग या जांच को अहम करार दिया गया, किंतु साधनों के अभाव में उसकी आवश्यकता को अधिक प्रचारित नहीं किया गया. अप्रैल माह आते-आते कोरोना की जांच में एक विश्वास आने लगा, जो मई माह तक मजबूत स्थिति में आ गया.
फिर टेस्टिंग को सबसे बड़ा हथियार मानने में कोई गुरेज नहीं किया गया. किंतु तब भी यह तय नहीं हो पा रहा था कि भारत की इतनी बड़ी आबादी में टेस्टिंग संभव हो पाएगी या नहीं. किंतु आरटी-पीसीआर टेस्टिंग तकनीक के बाद त्वरित जांच तकनीक एंटीजन ने स्वास्थ्य कर्मियों के हौसले बुलंद कर दिए और प्रशासन ने उसे एक अच्छे औजार की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. नतीजा आज देश के सामने है.
बीते साढ़े चार माह में जांच की संख्या पौने दो करोड़ तक पहुंचने जा रही है. महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात और दिल्ली जैसे राज्यों ने जांच में कीर्तिमान स्थापित किए हैं. इतना होने के बावजूद कोरोना की श्रृंखला टूटी या स्थायी रूप से टूट जाएगी, यह कहना किसी के बस में नहीं है. देश में ही केरल को कोरोना मुक्त मान लिया था, अब भी वहां नए मामले सामने आ रहे हैं.
दिल्ली में स्वस्थ मरीजों की संख्या में बढ़ोत्तरी के पीछे जांच ही बड़ा कारण माना जा रहा है. मगर तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और गुजरात में ऐसा कोई दावा करने में सक्षम नहीं है. इसकी वजह साफ है कि जांच का दायरा बड़ा हो या संख्या के रूप में जांच अधिक दिख रही हो, मगर जांच क्या, कहां और कितनी हो रही है, इस पर भी आगे की रणनीति टिकी है. महाराष्ट्र समेत अनेक राज्य जांच में बीस प्रतिशत से अधिक संक्रमितों को ढूंढ़ना छाती ठोंक कर बता रहे हैं, जबकि विश्व भर के कोरोना विशेषज्ञ इतनी बड़ी संख्या में संक्रमितों का मिलना अच्छा नहीं मानते हैं.
उनकी नजर में इस प्रकार की कोरोना टेस्टिंग अधिक संक्रमितों के बीच की गई जांच है, जो बीमारी के अप्रत्याशित विस्तार को रोकती नहीं है. इसी प्रकार यदि किसी इलाके में कम संक्रमितों के मिलने का दावा किया जा रहा है, तो वह भी गलत ही माना जाता है और उसे भी संक्रमण के सही दायरे में पहुंचना नहीं माना गया है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) कहता है कि जांच में यदि पांच फीसदी संक्रमित पाए जाते हैं तो माना जा सकता है कि स्थिति नियंत्रण में है. अध्ययनों में पांच से दस फीसदी तक संक्रमितों का मिलना तो स्वीकार्य है, मगर 15 से 20 फीसदी संक्रमितों को ढूंढ़ने के दावे जांच पर ही प्रश्चचिह्न् लगाते हैं.
इसी प्रकार विशेषज्ञों का यह भी मत है कि यदि जांच में संक्रमितों की संख्या दो फीसदी तक आ जाती है तो वह बीमारी पर नियंत्रण पाने की स्थिति है. मगर उस संख्या को 14 दिन तक स्थिर रहना चाहिए. ऐसे में सवाल उठता है कि देश में कोरोना जांच का बढ़ना क्या वास्तविक रूप से जीत के लक्ष्य की ओर बढ़ना है या फिर जांच का संतोष ही बीमारी पर विजय है.
ध्यान देने योग्य यह भी है कि कोरोना संक्रमण में बिना लक्षण वाले रोगियों को सर्वाधिक चिंता का कारण माना गया है. यही वजह है कि टेस्टिंग में सर्वाधिक जोर उनकी ही खोज पर है. उनकी तलाश में गैर संक्रमितों का मिलना स्वाभाविक है.
वहीं दूसरी ओर जांच के आसान लक्ष्यों को पाने के लिए बीमार संक्रमितों के बीच नए संक्रमितों को ढूंढ़ना सरल है. कुछ हद तक कहीं न कहीं आसान प्रक्रिया को सफलता भी मिल रही है. मगर इस भ्रम को ज्यादा दिन तक संभाला नहीं जा सकता है, क्योंकि टेस्टिंग के आंकड़ों को केवल संख्या के आधार पर ही समझा और दावा नहीं किया जा सकता है. टेस्टिंग के लिए जब तक वैज्ञानिक तरीके से आगे बढ़ कर चार दिशाओं में काम नहीं किया जाता, तब तक कोरोना की श्रृंखला टूटने की उम्मीद अधिक नहीं की जा सकती है.
हालांकि प्रक्रियागत जांच के नतीजे अवश्य मिल सकते हैं. दिल्ली में मरीजों की संख्या में कमी आई है, लेकिन वहां बीमारी से मुक्ति मिलने का बड़ा कारण ‘हर्ड इम्युनिटी’ (सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता) उभर कर सामने आया है. फिर भी मरीजों की संख्या में उतार-चढ़ाव संभव है. यही केरल के साथ भी हो रहा है.
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के संचालक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने बीमारी की शुरुआत में ही कह दिया था कि या तो बीमारी से बचने का टीका मिल जाए या फिर 80 प्रतिशत लोगों के बीमार होने के बाद ‘हर्ड इम्युनिटी’ विकसित हो जाए, तब ही कोरोना की कहानी को समाप्ति के पास माना जा सकता है. फिलहाल यदि टेस्टिंग के बहाने कोरोना को अपने जाल में फंसाने के दावे किए जाने लगे हैं तो वे जल्दबाजी में की गई घोषणाएं और भ्रम में जीने की स्थिति है. अभी और संभल तथा समझ कर चलने की जरूरत है.