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कृषि संकट: नए सिरे से करना होगा विचार

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: January 17, 2025 7:04 AM

वे चकाचौंध भरी शहरी जीवनशैली के प्रति आकर्षित हैं. ऐसा लगता है कि वे अपने पिता और दादाओं की तरह कृषक का काम जारी नहीं रखना चाहते.

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अभिलाष खांडेकर

देश की राजनीतिक राजधानी के पास हरियाणा-पंजाब राज्य की सीमा पर कड़ाके की ठंड के बावजूद गर्मी बरकरार है. भाजपा सरकार के खिलाफ दृढ़ किसान हिम्मत हारने के मूड में नहीं हैं. संसद में विवादास्पद कृषि विधेयक पारित हुए चार साल से ज्यादा हो गए हैं. उन विधेयकों ने पूरे देश में कृषि से जुड़े समुदाय के बीच आग भड़का दी थी. हालांकि सरकार ने कहा था कि यह किसानों के हित में है, लेकिन किसान समुदाय, खास तौर पर दोनों राज्यों के किसानों ने इस तर्क को मानने से साफ इनकार कर दिया. आंदोलनकारी किसानों का आंदोलन और गुस्सा भले ही अब कम हो गया हो, लेकिन पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है.

इस बीच दो मौतें हो चुकी हैं - पिछले हफ्ते पंजाब के तरनतारन जिले के किसान रेशम सिंह ने आत्महत्या कर ली. बताया जाता है कि उसने शंभू बॉर्डर पर कीटनाशक पी लिया, जहां सैकड़ों किसान विरोध प्रदर्शन में बैठे हैं. पिछले साल फरवरी से विरोध प्रदर्शनों का नवीनतम दौर चल रहा है और मांग एक ही है- सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानूनी गारंटी. केंद्र सरकार ने 2020 के अंत में तीन विवादास्पद कृषि कानून पारित किए तभी से देश के किसान बेचैन हो गए.

जल्द ही पूरे भारत में विभिन्न यूनियनों से जुड़े किसानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया और 2020-21 में दिल्ली के पास एक बहुत बड़ा और लंबा आंदोलन हुआ, जिसमें सरकार की क्रूर ताकत और किसानों की अभेद्य एकता के बीच अभूतपूर्व संघर्ष देखा गया.  किसानों को तब भी डर था और अभी भी है कि तीन कानून, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य चुनावों की पूर्व संध्या पर नाटकीय रूप से वापस ले लिया था, उनका उद्देश्य कॉर्पोरेट क्षेत्र के हाथों में किसानों का भाग्य सौंपना था.

किसानों को लगा कि उनकी उपज पर निजीकरण का खतरा मंडरा रहा है, क्योंकि सरकार द्वारा अभी भी अनेक कृषि उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कोई गारंटी नहीं दी जाती है.

दुनिया भर में और खास तौर पर भारत में, कृषि क्षेत्र मौसम की अनिश्चितताओं पर निर्भर है. हम खुद को कृषि अर्थव्यवस्था कहने में गर्व महसूस करते हैं और हमारे राजनेता किसानों और इस क्षेत्र से जुड़े लोगों के वोट-बैंक पर बहुत अधिक निर्भर हैं, लेकिन हकीकत में खेती कई कारणों से भारी संकट में है. इनमें से एक कारण राजनीति है और इसलिए इसके लिए मजबूत नीतियों का अभाव है.

प्रधानमंत्री द्वारा दी गई दो साल की समय सीमा बीत चुकी है, जिन्होंने बार-बार वादा किया था कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी कर दी जाएगी. ऐसा नहीं हुआ, हालांकि 2016 में एक उच्चस्तरीय पैनल (अशोक दलवई समिति) का गठन किया गया था, जिसने कई सिफारिशें प्रस्तुत की थीं. इसने कुछ चीजों के निजीकरण का भी सुझाव दिया था. स्वामीनाथन रिपोर्ट भी काफी हद तक कागजों तक ही सीमित रह गई. दक्षिणी राज्यों में चुनावी लाभ के लिए उन्हें 2024 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, यह बात अलग है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि किसानों की आय दोगुनी करना (डीएफआई) कोई ‘जुमला’ नहीं था क्योंकि भाजपा सरकार के तहत कृषि उपकरण, उर्वरक और सिंचाई सुविधाओं आदि की लागत लगातार बढ़ी है और आय कम ही हुई है. वर्षा आधारित कृषि कुछ फसलों तक ही सीमित है जबकि अन्य को निरंतर पानी की आपूर्ति की आवश्यकता होती है. मिट्टी की कम उत्पादकता, बीज की  निम्न गुणवत्ता, सूखा, भारी बारिश और लगातार उतार-चढ़ाव वाली कीमतें सामूहिक रूप से किसानों की आत्महत्या का कारण बन रही हैं.

हालांकि वे ‘एमएसपी’ के लिए लगातार दबाव बना रहे हैं, लेकिन कई स्वतंत्र विशेषज्ञों का मानना है कि ‘एमएसपी’ से आगे देखने का अब समय आ गया है. लोग इस बात पर संदेह कर रहे हैं कि अगर ‘एमएसपी’ को कानूनी जामा पहना दिया जाता है तो कमजोर अर्थवयवस्था को देखते हुए सरकार किसानों को दीर्घकालिक सहायता देने में सक्षम होगी या नहीं?

भारत में कृषि-विज्ञान की चुनौतियों का एक और महत्वपूर्ण पहलू है. भूमि जोत का आकार घटता जा रहा है, जिससे यह धंधा अलाभकारी होता जा रहा है. किसान ऐसे समय में आंदोलन कर रहे हैं, जब भारत में कृषि का भविष्य अंधकारमय लगता है. सरकार के सामने यह सवाल है कि मौजूदा स्वरूप की कृषि  कब तक उन्हें सक्षम बनाए रख पाएगी?

बढ़ता शहरीकरण कृषि भूमि को ऐसे खा रहा है जैसे मगरमच्छ मछली को खा जाता है. युवा किसानों को ग्रामीण जीवन में कोई दिलचस्पी नहीं है; वे चकाचौंध भरी शहरी जीवनशैली के प्रति आकर्षित हैं. ऐसा लगता है कि वे अपने पिता और दादाओं की तरह कृषक का काम जारी नहीं रखना चाहते.

इन कठिन परिस्थितियों के बीच आंदोलनकारी किसान इस गंभीर संकट के समाधान की तलाश कर रहे हैं. सभी हितधारकों को कृषि को दिलचस्प और लाभदायक व्यवसाय बनाने के अलावा कोई उपाय नहीं है. साठ के दशक के खाद्य संकट को याद करें. अगर दूरदर्शिता नहीं दिखाई गई तो हम फिर ऐसी ही स्थिति में पहुंच सकते हैं क्योंकि कृषि का रकबा तेजी से घट रहा है.

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