यूपी में भाजपा को केवल अब 'राम मंदिर' ही बचा सकता है!
By विकास कुमार | Published: January 17, 2019 03:47 PM2019-01-17T15:47:43+5:302019-01-17T16:12:26+5:30
मोदी लहर नहीं तो फिर राम लहर ही सही, लेकिन मौजूदा वक्त की राजनीति में जब सारा खेल परसेप्शन का ही है तो भाजपा को जल्द से जल्द इस लहर को तैयार कर लेना चाहिए.
7 लोक कल्याण मार्ग का रास्ता लखनऊ से हो कर जाता है और इन दिनों यह शहर कई नए राजनीतिक समीकरणों का गवाह बन रहा है. गेस्ट हाउस कांड को भुलाने के बाद मायावती ने अखिलेश यादव के साथ गठबंधन किया और प्रदेश से भाजपा को उखाड़ फेंकने की कसम खाई. सपा और बसपा के 38-38 सीटों पर लड़ने के एलान के बाद रालोद की भी एंट्री इस गठबंधन में हो चुकी है. मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस को शामिल किए बिना एक नए महागठबंधन का खाका खींच लिया है. प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भले ही ये दंभ भर लें कि इस गठबंधन के होने के बाद उनके लिए सपा और बसपा को एकसाथ हराना और आसान हो गया है, लेकिन ये बात उन्हें भी पता है कि इस गठबंधन का उनकी पार्टी के राजनीतिक स्वास्थय पर क्या असर पड़ने वाला है?
क्या असर होगा इस गठबंधन का
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी में सबसे ज्यादा 43.3 फीसदी वोट मिले थे. इस वोट प्रतिशत के समानांतर अगर आज सपा-बसपा-रालोद के गठबंधन को रखा जाए तो इन्हें 43.1 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. जो कि भारतीय जनता पार्टी के वोट प्रतिशत को छूती हुई प्रतीत हो रही है. इसका मतलब है खतरे की घंटी बीजेपी के लिए बज चुकी है, जो संभव है कि उन्हें भी सुनाई दे रहा होगा. सपा का 11 % यादव वोटबैंक, मायावती का 21 % दलित वोटबैंक और अजित सिंह का जाट वोटबैंक, इस राजनीतिक बहीखाते में अगर 16 % मुस्लिम वोटबैंक को जोड़ दिया जाये तो भाजपा के पसीने छूट जायेंगे.
अजित सिंह को गठबंधन ने तीन सीटें देने का फैसला किया है. खुद अजित सिंह बागपत से चुनाव लड़ सकते हैं तो वहीं उनके बेटे जयंत चौधरी मथुरा से आरएलडी के प्रत्याशी होंगे. इसके अलावा कैराना सीट भी अजित सिंह की पार्टी को दिया जा सकता है, क्योंकि उनके पार्टी की प्रत्याशी तबस्सुम हसन इस सीट पर अपनी योग्यता पिछले साल हुए उपचुनाव में साबित कर चुकी हैं.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की आबादी 17 प्रतिशत है और वो सीधे-सीधे 50 विधानसभा सीटों पर जीत का फैसला करते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में मुज्ज़फरनगर दंगों के कारण जाटों का वोट भाजपा को मिला था जिसके कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने अजित सिंह को खत्म कर दिया था, लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं है और क्षेत्र के गन्ना किसान भी सरकार से नाराज हैं तो क्या ऐसे में बीजेपी के लिए कोई विकल्प नहीं रह जाता है?
2014 में मोदी लहर लेकिन इस बार क्या
2014 के लोकसभ चुनाव में प्रचंड मोदी लहर के आगे पूरा विपक्ष असहाय नजर आया, लेकिन इस बार मोदी लहर जैसी कोई चीज नहीं दिख रही है. 2017 में प्रदेश के मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ ने योगी लहर जैसा कोई मुकाम नहीं हासिल किया है, बल्कि उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा गोरखपुर और कैराना जैसी लोकसभा सीटें गंवा चुकी है जहां योगी का हिंदूत्व विपक्षी पार्टियों के जातीय एकता के सामने दम तोड़ती नजर आई थी.
प्रयागराज में महाकुंभ जारी है. साधू-संतों का पूरा हुजूम यहां जुटने वाला है. धर्मसंसद भी होने वाली है. ऐसे में राम मंदिर का मुद्दा जोर-शोर से उठाया जायेगा. देश सहित प्रदेश की राजनीति में पिछले 22 सालों से भाजपा राम मंदिर के नांम पर वोट मांगती आई है. लेकिन इस बार मौका भी है और दस्तूर भी. बात अगर राजनीतिक अस्तित्व की हो तो इस मुद्दे पर आगे बढ़ने में अब कोई हर्ज नहीं है. संघ इस बात को पहले ही भांप चुका है इसलिए हाल के दिनों में राम मंदिर को लेकर खुद मोहन भागवत ने मोर्चा संभाला है और बार-बार केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव भी बना रहे हैं.
विपक्ष पार्टियों के जातीय समीकरणों को अगर तोड़ना है तो भाजपा को इस बार रामलला को पूरी आस्था के साथ याद करना होगा. इस बार नारे के साथ-साथ मंदिर निर्माण की तारीख भी बतानी होगी ताकि साधू-संतों का आशीर्वाद मिल सके. मोदी लहर नहीं तो फिर राम लहर ही सही, लेकिन मौजूदा वक्त की राजनीति में जब सारा खेल परसेप्शन का ही है तो भाजपा को जल्द से जल्द इस लहर को तैयार कर लेना चाहिए.