राजेश बादल का ब्लॉग: 34 साल बाद भी डराती है वह भयावह त्रासदी

By राजेश बादल | Published: December 4, 2018 05:13 AM2018-12-04T05:13:54+5:302018-12-04T05:13:54+5:30

भोपाल के उस दर्दनाक इलाके की तस्वीर आज भी दिल दहला देती है। सैकड़ों किमी दूर बैठकर दुर्घटना का विश्लेषण अलग बात है और भोपाल की गैस पीड़ित बस्तियों के बीच से रिपोर्टिग अलग बात।

after 34 years it is frightening the bhopal gas tragedy | राजेश बादल का ब्लॉग: 34 साल बाद भी डराती है वह भयावह त्रासदी

राजेश बादल का ब्लॉग: 34 साल बाद भी डराती है वह भयावह त्रासदी

चौंतीस बरस हो गए दुनिया की भयावह और भीषण त्नासदी को। कुदरत का कोप नहीं, हमारी अपनी लापरवाही। बीस हजार लोगों की मौत कोई छोटा-मोटा हादसा नहीं था। संसार का सबसे क्रूर और अमानवीय हादसा। आज भी भोपाल के हजारों लोग उस जहरीली मिथाइल आइसो साइनेट का दंश भोग रहे हैं। पीढ़ियां विकलांग होती जा रही हैं।

हमारे नियंताओं ने मातमपुर्सी के लिए दो शब्द भी अपनी जबान से न निकाले। लेकिन चौंतीस बरस पहले भोपाल के लिए समूची दुनिया की कलम से कराह निकली थी। यह कराह अफसोस और अपराधबोध से भरी हुई थी। चौंतीस बरस पहले माध्यमों ने किस तरह शोक मनाया था - आज एक बार याद करना आवश्यक है। उन दिनों देश में कम्प्यूटर और ई-मेल सेवा नहीं आई थी और न ही वेबसाइटों के जरिए यह सामग्री मिलती थी। दिल्ली-मुंबई, चेन्नई, कोलकाता या कुछ और मंझोले शहरों को छोड़ दें तो विदेशी अखबार भी भारत में आसानी से नहीं मिलते थे।

ऐसी सूरत में मुङो उत्सुकता हुई कि गैस त्नासदी के बारे में विदेशी माध्यमों में और भारत के अन्य प्रदेशों में क्या छप रहा था। खास तौर पर अमेरिकी और पश्चिमी देशों में प्रकाशित जानकारी जरूरी थी क्योंकि यूनियन कार्बाइड कारखाने की जड़ें तो वहीं थीं। इस सामग्री को जुटाने में उन दिनों काफी समय लगा। इसमें अनेक चौंकाने वाले तथ्य उजागर हुए। आज भी यह जानकारी हमें झकझोरती है। चौंतीस बरस बाद भी चुनिंदा अखबारों-पत्रिकाओं की यह सामग्री प्रासंगिक है। 

शुरुआत न्यूयॉर्क से प्रकाशित  पत्रिका न्यूजवीक से। सत्नह दिसंबर, चौरासी को इस पत्रिका ने गैस त्नासदी पर कवर स्टोरी छापी थी। मुखपृष्ठ पर रंगीन फोटो के साथ करीब ग्यारह पन्नों में यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। न्यूजवीक ने अपने संवाददाताओं का दल हादसे के अगले ही दिन भोपाल भेज दिया था। इन संवाददाताओं  ने त्नासदी का एक तरह से आंखों देखा हाल बयान किया था। एक-एक मानवीय पहलू की सघन पड़ताल। अमेरिका की पत्रिका टाइम ने सत्नह दिसंबर को ही इसे आमुख कथा बनाया था। यह कथा पत्रिका के आठ पन्नों में थी।   

अमेरिका के ही बोस्टन ग्लोब ने लिखा कि 1980 से पेंटागन ने जैविक और रासायनिक प्रयोगशालाओं को 60 से ज्यादा ठेके मनुष्य के शरीर पर जहरीले रसायनों के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए दिए हैं। 

भारतीय समाचार पत्नों तथा  पत्रिकाओं ने भी इस हादसे को अपने पन्नों पर जगह दी। अखबारों ने कई दिन तक विशेषांक निकाले और संवाददाताओं को भोपाल भेजा। इन संवाददाताओं ने महीने-डेढ़ महीने तक राजधानी भोपाल में डेरा डाला और गैस कांड के बारे में तथ्यात्मक, खोजी रिपोर्टिग की। दक्षिण भारत के अंग्रेजी, उर्दू, तमिल, तेलुगू, मलयालम, उड़िया और कन्नड़ जैसी भाषाओं के पत्न-पत्रिकाओं में इस पर काफी लिखा गया।

बेंगलुरु के उर्दू रिसाले नशेमन ने लिखा- ‘जिंदा रहने वालों की खुशकिस्मती है कि यह वाकया ठीक आम चुनाव के वक्त पेश आया। चुनाव की मजबूरी के चलते ही हुकूमत दिल खोलकर रुपया दे रही है।’ अंग्रेजी दैनिक डेक्कन हेराल्ड ने लिखा- ‘उस रात कारखाने के इर्द-गिर्द लोग तड़पते रहे और दम तोड़ते रहे, लेकिन कारखाने के प्रबंधकों ने बचाव के सारे उपायों की जानकारी होने के बाद भी कुछ नहीं किया। क्या इसे इरादतन सामूहिक नरसंहार का अपराध नहीं माना जाना चाहिए।’ दिल्ली के दो साप्ताहिकों की टिप्पणी जरूरी लगती है।

अंग्रेजी साप्ताहिक मेनस्ट्रीम ने सरकार से यह भी सवाल किया कि कौन से आंकड़ों के सहारे उसने माना कि कार्बाइड कारखाने से जनजीवन को कोई खतरा नहीं है। तमाम ट्रेड यूनियनों या समाचार पत्नों ने जब संभावित खतरों की ओर ध्यान खींचा तो कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? साप्ताहिक ने एक गंभीर सवाल और उठाया।
 

उसके मुताबिक 1976 में कार्बाइड कंपनी की भारत में पूंजी केवल 15 करोड़ थी। इसके बाद उसे 1983 में एक रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर 20 करोड़ रु पए की पूंजी से शुरू करने की इजाजत दे दी गई। यही नहीं कंपनी को इस केंद्र के लिए आयकर सीमा में भी राहत दी गई, दूसरी ओर भारतीय औद्योगिक एवं अनुसंधान परिषद की प्रयोगशालाएं इतनी सुविधाहीन क्यों हैं कि वे कीटनाशकों के बारे में अपने अनुसंधान नहीं कर सकतीं। अंग्रेजी साप्ताहिक न्यू वेब ने शक प्रकट किया कि कहीं कारखाने में कोई घातक रासायनिक परीक्षण तो नहीं चल रहा था?  

भोपाल के उस दर्दनाक इलाके की तस्वीर आज भी दिल दहला देती है। सैकड़ों किमी दूर बैठकर दुर्घटना का विश्लेषण अलग बात है और भोपाल की गैस पीड़ित बस्तियों के बीच से रिपोर्टिग अलग बात। सबको समेटना चुनौती भरा काम था। तब जानकारी जुटाने और संचार संप्रेषण के आधुनिक साधन भी नहीं थे। इसके बाद भी जिन्होंने किया उनके हौसले और जज्बे को सलाम। किसी पत्नकार को कभी ऐसे हादसे की रिपोर्टिग न करना पड़े।
 

Web Title: after 34 years it is frightening the bhopal gas tragedy

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