अभिषेक कुमार सिंह का ब्लॉग: दावानल बुझाने के लिए कृत्रिम बारिश कितनी कारगर?
By अभिषेक कुमार सिंह | Published: April 12, 2021 10:19 AM2021-04-12T10:19:54+5:302021-04-12T10:20:42+5:30
उत्तराखंड के जंगलों में बड़े पैमाने पर लगी आग की सूचनाएं प्रकाश में आने पर उत्तराखंड हाईकोर्ट में वन संपदा और वन्यजीवों के संरक्षण के लिए एक जनहित याचिका दायर की गई.
पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में इस बार आपदा बाढ़, अत्यधिक बारिश, बर्फ और भूस्खलन की नहीं बल्कि दावानल के धधक उठने की है. संकट सिर्फ जंगलों के खत्म हो जाने का नहीं है बल्कि इससे वन्य जीव-जंतुओं, बहुमूल्य वनस्पतियों, इमारती लकड़ी के अलावा समूचे पर्यावरण और जैव विविधता के खतरे में पड़ जाने का है.
यही कारण है कि इस मामले का संज्ञान लेते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से त्वरित कार्रवाई करने और जरूरी होने पर कृत्रिम वर्षा का सहारा लेने की बात कही है. वैसे तो जंगल की आग थामने के कई और उपाय हैं.
सरकारें और वन विभाग उन्हें अमल में लाने और दावानल पर अंकुश रखने का दावा भी करते रहे हैं, लेकिन कृत्रिम वर्षा से जंगल की आग रोकने का विचार अपेक्षाकृत नया माना जाएगा क्योंकि देश में अभी इसके उदाहरण आम तौर पर नहीं मिले हैं.
उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड के जंगलों में बड़े पैमाने पर लगी आग की सूचनाएं प्रकाश में आने पर उत्तराखंड हाईकोर्ट में वन संपदा और वन्यजीवों के संरक्षण के लिए एक जनहित याचिका दायर की गई. इस याचिका पर स्वत: संज्ञान लेते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने वैसे तो कई उपायों पर अमल नहीं होने को लेकर राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा किया.
जैसे, यह पूछा कि वर्ष 2017 में उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग के दौरान राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) द्वारा जारी 12 बिंदुओं वाले दिशानिर्देशों पर आज तक अमल क्यों नहीं हुआ है. अदालत ने इन दिशानिर्देशों को 6 महीने में लागू करने का निर्देश दिया. साथ ही वनाग्नि से निपटने के लिए स्थायी व्यवस्था करने का सुझाव देते हुए राज्य सरकार से पूछा कि क्या वह दावानल पर काबू पाने के लिए कृत्रिम वर्षा तकनीक का सहारा ले सकती है.
इस सुझाव पर अमल की संभावनाओं का उल्लेख करते हुए अदालत ने यह सावधानी बरतने को भी कहा कि कहीं कृत्रिम वर्षा से राज्य की भौगोलिक अवस्था पर कोई असर तो नहीं पड़ेगा. अदालत की इस सूझबूझ की सराहना की जानी चाहिए क्योंकि उसने उत्तराखंड की भौगोलिक संरचना को ध्यान में रखते हुए ही कृत्रिम वर्षा तकनीक की आजमाइश के संबंध में सलाह दी है.
कृत्रिम बारिश को विज्ञान की भाषा में क्लाउड सीडिंग भी कहा जाता है. ऐसी बारिश कराने के लिए छोटे आकार के रॉकेटनुमा यंत्न केमिकल भर कर आकाश में दागे जाते हैं. विमानों, हेलिकॉप्टर और ड्रोन से भी नकली बारिश कराने के कुछ प्रयोग दुनिया में सफल हुए हैं. केमिकल के रूप में सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल किया जाता है.
यह केमिकल आकाश में छितराए हुए बादलों से रासायनिक क्रिया कर बारिश करता है. इस तकनीक के तहत रॉकेट दागे जाने के 45 मिनट में सामान्य तौर पर 20 किमी के दायरे में बारिश हो जाती है. हमारे देश में कृत्रिम बारिश के अनौपचारिक प्रयोग 1951 में ही शुरू हो गए थे. सबसे पहले पश्चिमी घाट (वेस्टर्न घाट) इलाके में इसकी कोशिश की गई, लेकिन इस पर आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र ने ऐतराज जताया था.
अतीत में महाराष्ट्र और कर्नाटक में कृत्रिम बारिश कराने की कोशिशें नाकाम रही हैं क्योंकि नमी वाले बादल उस दौरान उड़कर कहीं और चले गए.
असल में कृत्रिम बारिश कराने की अपनी मुश्किलें हैं. अलग-अलग इलाकों में बादलों की बनावट अलग होती है. उस खास इलाके के मौसम को ढंग से समझकर ही कृत्रिम बारिश का फैसला लिया जाता है. सर्दी-गर्मी में बादलों के भीतर पानी की बूंदें बहुत कम होती हैं. ऐसी स्थिति में क्लाउड सीडिंग तकनीक से कृत्रिम बारिश की कोशिश का नाकाम होना तय है.
अति उत्साह में आकर दिल्ली-एनसीआर जैसे इलाके में और उत्तराखंड के पर्वतीय इलाके में कृत्रिम बारिश कराने की कोशिश के नुकसानदेह नतीजे भी निकल सकते हैं. नमी और पानी से भरे बादलों के अभाव में आसमान में रसायनों का छिड़काव यहां के स्मॉग में मौजूद जहरीले तत्वों की बारिश करा सकता है जो वर्षा को एसिड रेन में बदल सकता है.