अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः गांधीजी के पास लौटने की अनेक हैं वजहें

By अभय कुमार दुबे | Published: October 9, 2019 01:16 PM2019-10-09T13:16:51+5:302019-10-09T13:16:51+5:30

महात्मा गांधी स्वराज की डोर स्त्रियों के हाथ में देना चाहते थे, वे स्त्री-शक्ति के प्रति पूर्णत: आश्वस्त थे

Abhay Kumar Dubey's Blog: There are many reasons to return to Gandhiji | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः गांधीजी के पास लौटने की अनेक हैं वजहें

अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः गांधीजी के पास लौटने की अनेक हैं वजहें

आधुनिक सभ्यता ने स्त्रियों को भोग्या के रूप में प्रस्तुत करके उनके शोषण को बढ़ावा दिया है. इस सभ्यता ने स्त्रियों में प्राकृतिक रूप से निहित इन गुणों को आलोकित करने के बजाय स्त्रियों के लिए भी पुरुषोचित मापदंडों को ही सामने रखा है. फलत: आधुनिक सभ्यता में स्त्रियां पुरुषोचित दक्षता को प्राप्त करके अपना सबलीकरण करने के प्रयत्नों में संलग्न हैं.

महात्मा गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती पर अगर हम चाहें तो उनसे आधुनिकता और लोकतंत्र के आपसी संबंधों की आलोचना करने का दृष्टिकोण सीख सकते हैं. गांधी ने अल्पमत एवं बहुमत के आधार पर सत्य को परखने से इंकार किया है. संसदीय लोकतंत्र की आलोचना करते हुए बापू ने कहा है कि शासन की यह प्रणाली दबाव के अभाव में निष्क्रिय पड़ी रहती है. यह जनता के धन की बर्बादी करती है और इसके तौर-तरीकों के पालन के प्रति स्वयं जनप्रतिनिधि ही निष्ठावान नहीं होते. 

संसदीय लोकतंत्र का पार्टी आधारित राजनीतिकरण एवं संसद में बहस के गिरते स्तर को भी गांधी ने रेखांकित किया है. गांधी का विचार था कि यह लोकतंत्र यंत्र यानी प्रौद्योगिकी, उद्योग यानी उत्पादन के बड़े साधन एवं अर्थव्यवस्था का पिछलग्गू होता है. इसीलिए इन ताकतों पर प्रभुत्व रखने वाले वर्ग द्वारा ही संसदीय प्रजातंत्र नियंत्रित होता है.

उदारतावाद का आधुनिक विचार गांधी के अनुसार मानव स्वभाव को गलत तरीके से समझने पर आधारित है. आधुनिक सभ्यता में उदारतावाद ने ऐसे व्यक्ति के लिए निरपेक्ष स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार की है जो अमूर्त होता है, जबकि समाज में न तो अमूर्त व्यक्ति होता है न ही निरपेक्ष स्वतंत्रता. गांधी इस तथ्य के प्रति भी सचेत हैं कि आधुनिक सभ्यता की मौलिक ज्ञानमीमांसा में समानता का विचार बेहद कमजोर है. गांधी तो मानव-मात्र की समानता में विश्वास करते हैं, लेकिन उन्हें आधुनिक सभ्यता की समानता की धारणा स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि यह भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के क्षेत्र तक ही समानता को सीमित करती है.

अभी पिछले दिनों मैंने युवा चिंतक विश्वनाथ मिश्र द्वारा की गई गांधी-विचार की व्याख्या पर गौर किया. विश्वनाथ के अनुसार गांधी देख सकते थे कि आधुनिक सभ्यता की हिंसात्मक वृत्ति अनेक रूपों में प्रकट होती है. श्रम एवं लाभ का शोषण जहां हिंसा के एक स्रोत हैं. वैचारिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रभुत्व की स्थापना या इसके प्रयास हिंसा के दूसरे स्रोत हैं. गांधी ने इन हिंसाओं को रोकने के नाम पर राज्य की बढ़ती हुई ताकत को संदेह की नजर से देखा है. गांधी किसी भी संगठित शक्ति को हिंसा के मूर्तिमान पुंज के रूप में ही देखते हैं. गांधी शस्त्रों की होड़ और सैन्य प्रतिस्पर्धा को आधुनिक सभ्यता की बर्बर निशानी मानते हैं. गांधी का विचार है कि आधुनिक राज्यों की शक्ति में बढ़ोत्तरी मात्र आर्थिक, तकनीकी एवं प्रशासनिक आवश्यकताओं के कारण ही नहीं हुई है, अपितु यह मानवीय साहचर्य के घटते हुए परिवेश की खाई को पाटने के उद्देश्य से भी हुई है.

विश्वनाथ मिश्र ने गांधी-विचार का ज्ञानमीमांसक विश्लेषण करते हुए उनकी राजनीतिक रणनीति की जेंडर-संवेदनशीलता को रेखांकित किया है. यह गांधी की दूरदृष्टि ही थी जिसने यह माना कि जब तक अबला को सबला नहीं बनाया जाएगा तब तक स्वराज का निहितार्थ सिद्ध नहीं होगा. गांधी स्वराज की डोर स्त्रियों के हाथ में देना चाहते थे. वे स्त्री-शक्ति के प्रति पूर्णत: आश्वस्त थे. वे कहते थे यदि शक्ति का मतलब केवल पशु बल ही होता है तो बेशक स्त्रियों में पशु बल कम है. लेकिन यदि उसका अर्थ नैतिक शक्ति होता है तो स्त्रियों की शक्ति से पुरुषों की शक्ति की कोई तुलना नहीं की जा सकती. 

गांधी ने माना कि स्त्रियों का भी एक अलग व्यक्तित्व है एवं इस व्यक्तित्व की भी अपनी एक गरिमा है. समाज के उत्थान में यदि इस व्यक्तित्व को स्थान नहीं मिलता तो किसी भी प्रकार का स्वराज मात्र आंशिक ही होगा. गांधी के अनुसार सत्याग्रह का मर्म कष्ट सहने में है और स्त्रियों को तो कष्ट सहने की अदम्य शक्ति प्रकृति से ही प्राप्त है. गांधी के आह्वान पर अनगिनत स्त्रियों ने अहिंसात्मक सत्याग्रह की कमान संभाली तथा यथायोग्य अंशदान दिया. गांधी का अभिप्राय कभी भी स्त्रियों द्वारा पुरुषों की नकल करना अथवा दोनों के स्वभावगत अंतर को अनदेखा कर देना नहीं था. गांधी स्वीकारते हैं कि आत्मिक रूप से एक होते हुए भी स्त्री और पुरुष में प्रकृतिगत विभेद है और यही उनकी समाज के प्रति भूमिका की विभिन्नता को दर्शाता है.

आधुनिक युग में स्त्रियों की बदतर स्थिति के लिए भी गांधी ने आधुनिक सभ्यता की आलोचना की है. आधुनिक सभ्यता ने एक ओर विशेषज्ञता आधारित कर्मो के आर्थिक महत्व को स्थापित करके स्त्रियोचित गुणों के सृजनात्मक एवं पोषणात्मक कर्मो की उपेक्षा की है, दूसरी ओर इसने भौतिक बल की श्रेष्ठता को स्थापित करके स्त्रियों के नैतिक बल को ढक दिया है. आधुनिक सभ्यता ने स्त्रियों को भोग्या के रूप में प्रस्तुत करके उनके शोषण को बढ़ावा दिया है. इस सभ्यता ने स्त्रियों में प्राकृतिक रूप से निहित इन गुणों को आलोकित करने के बजाय स्त्रियों के लिए भी पुरुषोचित मापदंडों को ही सामने रखा है. फलत: आधुनिक सभ्यता में स्त्रियां पुरुषोचित दक्षता को प्राप्त करके अपना सबलीकरण करने के प्रयत्नों में संलग्न हैं. किंतु इससे एक तो स्त्रियां निरंतर पुरुषों से पीछे रह जाती हैं और दूसरे अपने मूल स्वरूप से भटक जाती हैं.

विश्वनाथ मिश्र के इस आकलन से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता कि आधुनिक सभ्यता की मीमांसा हेतु गांधी ने जितने विस्तृत फलक का प्रयोग किया है वह अतुलनीय है. आधुनिक सभ्यता की आलोचना के क्रम में गांधी जितने समग्र दृष्टिकोण को अपनाते हैं, उतनी समग्रता अन्य चिंतकों में देखने को नहीं मिलती.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's Blog: There are many reasons to return to Gandhiji

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