अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: 10 प्रतिशत आरक्षण से डरे हुए नेताओं का लोकतंत्र

By अभय कुमार दुबे | Published: January 23, 2019 06:05 AM2019-01-23T06:05:23+5:302019-01-23T06:33:23+5:30

मोदी के नेतृत्व में पार्टी इस छोटे से लेकिन स्थायी किस्म के जनाधार की भावनाओं से बेपरवाह हो कर निचली और कमजोर जातियों में अपना आधार बढ़ाने की कवायद में लगी रही.

Abhay Kumar Dubey's blog: Democracy of leaders scared of 10 percent reservation | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: 10 प्रतिशत आरक्षण से डरे हुए नेताओं का लोकतंत्र

सांकेतिक तस्वीर

हमारे देश का राजनीतिक मानस कितना डरा हुआ है, इसका सबूत संसद में ऊंची जातियों को आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पर चर्चा के समय मिला. पक्ष और विपक्ष, दोनों ही आत्मसंदेहों से ग्रस्त दिखाई दिए.   

विपक्ष के नेता यह समझा पाने में तो कामयाब थे कि यह दस फीसदी आरक्षण संविधान की आत्मा के विरोध में होने के साथ-साथ एक चुनावी हथकंडा है. उन्हें यकीन था कि यह सुप्रीम कोर्ट में की जाने वाली समीक्षा में खारिज कर दिए जाने के लिए अभिशप्त है. वैसे भी पब्लिक सेक्टर में नौकरियां हैं ही नहीं, इसलिए आरक्षण से उन लोगों को लाभ नहीं मिलने वाला है जिनके लिए इसकी घोषणा की जा रही है.

पहली नजर में सही लगने वाली ऐसी दलीलों के बाद तो स्वाभाविक रूप से उन नेताओं को संबंधित संविधान संशोधन विधेयक का विरोध करना चाहिए था. लेकिन, उन्होंने तो अपने वक्तव्य की शुरुआत ही इस वाक्य के साथ की थी कि मैं इस विधेयक के पक्ष में बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं. 

इस प्रकट विरोधाभास की मोटी वाह यह थी कि वे ऊंची जातियों के मतदाताओं का विश्वास खो देने के अंदेशे से सहमे हुए थे. उनके भीतर अगर आत्मविश्वास होता तो संसद में इस विधेयक का तर्कपूर्ण और प्रभावी विरोध करने के बाद वे अपनी कार्यकर्ता-पंक्ति का नेतृत्व करते हुए सड़कों और गलियों में निकल जाते और ऊंची जातियों के बेरोजगार नौजवानों को इस दस फीसदी आरक्षण के छल के विरोध में जागरूक करते.

उनके पास लोकसभा चुनाव से पहले ऐसा करने के लिए कम से कम तीन महीने का समय था. अगर वे ऐसा करने का बीड़ा उठाते तो निश्चित रूप से उन्हें न केवल ऊंची जातियों के बीच अपने बात समझने लायक मतदाता मिलते, बल्कि वे कमजोर जातियों के बीच जा कर भी यह कह सकते थे कि चुनाव से पहले बांटी गई ये रेवड़ियां दरअसल सिद्धांतत: आरक्षण की नीति को निष्प्रभावी करने का कदम है.

उन्हें ध्यान रखना चाहिए था कि चुनाव से ठीक पहले जनता बहुत ग्रहणशील और सरकार के प्रति सबसे ज्यादा आलोचनात्मक दृष्टि से संपन्न होती है. विपक्ष ऐसा करके सारे देश में सरकार के विरोध में एक छोटी-मोटी लहर सी पैदा कर सकता था. अब आइए सत्तारूढ़ दल के भयग्रस्त मानस पर. पिछले चार साल में भाजपा और उसकी सरकार ने इस बात की कतई परवाह नहीं की कि उनका ऊंची जातियों से बनने वाला पारंपरिक वोट-आधार उनसे खुश है या नहीं.

मोदी के नेतृत्व में पार्टी इस छोटे से लेकिन स्थायी किस्म के जनाधार की भावनाओं से बेपरवाह हो कर निचली और कमजोर जातियों में अपना आधार बढ़ाने की कवायद में लगी रही. प्रधानमंत्री स्वयं अपनी पिछड़ी जाति को सीने पर तमगे की तरह पहने रहे. उन्होंने आयोग बैठाए, कमेटियां बनाईं, संसद में विधेयक पेश किया और एक दलित को राष्ट्रपति के पद पर चुनवाया— और हर तरह से कोशिश की कि पार्टी किसी न किसी तरह अपनी ब्राrाण-बनिया छवि से बाहर निकले.

दलितों से लेकर यादवों तक के घरों में पार्टी के शीर्ष नेताओं ने बार-बार जा कर सहभोज किया. यह पूरा उद्यम एक सामाजिक रणनीति का प्रतिनिधित्व करता था जिसके हिंदुत्व की राजनीति के लिए दूरगामी परिणाम निकल सकते थे. इस बीच छत्तीसगढ़ को छोड़ कर पार्टी को कहीं बड़ी हार का सामना नहीं करना पड़ा.

लेकिन, जनाधार विस्तृत करने की जब प्रतिक्रिया होनी शुरू हुई, तो पार्टी और सरकार डर गई. ठीक उस समय जब उसे अपनी सामाजिक रणनीति में विश्वास प्रकट करते हुए उसे और आगे बढ़ाना चाहिए था, उसने उल्टे कदम उठाते हुए ऊंची जातियों को आरक्षण देने का फैसला कर डाला. जिसे सरकार के कारकुन संसद में छक्का बता रहे थे, वह दरअसल बचाव में खेला गया एक ‘डिफेंसिव स्ट्रोक’ निकला. एक ऐसा स्ट्रोक जिसने योजनाबद्ध तरीके से खेली गई पूरी की पूरी सामाजिक पारी के स्कोर को एक हद तक महत्वहीन कर दिया. 

जाहिर है कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, सरकार का अपने ही कामों से भरोसा घटता जा रहा है. वह सस्ते लोकलुभावन उपायों के बारे में सोच रही है. यह कोशिश भी चल रही है कि रिजर्व बैंक के पास पड़े हुए अतिरिक्त धन को लेकर उसे प्रति-हेक्टेयर मदद के रूप में किसानों के खातों में सीधे डाला जाए ताकि बड़े पैमाने पर नाखुश किसान सरकार के साथ जुड़ें.

यह भी चर्चा सुनने में आ रही है कि सरकार बेरोजगार युवकों को बेरोजगारी भत्ता देने की घोषणा भी कर सकती है. आरक्षण दे कर पहले ऊंची जातियों की नाराजगी दूर करने की कोशिश, फिर जीएसटी में छूट देकर व्यापारी समुदाय की खिन्नता दूर करने का प्रयास, और अब यह पूरी पेशबंदी बताती है कि पिछले तीस साल में उभरा देश का सबसे शक्तिशाली नेता और पिछले पांच साल में विस्तारित हुई सबसे ताकतवर पार्टी अपने भीतर किस कदर असुरक्षित है. राजनीतिक मानस की इस असुरक्षा ने हमारे लोकतंत्र को डरे हुए नेताओं का लोकतंत्र बना दिया है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Democracy of leaders scared of 10 percent reservation

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