अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः अयोध्या के अलावा और भी युक्तियां हैं मोदी के पास 

By अभय कुमार दुबे | Published: August 7, 2019 05:02 AM2019-08-07T05:02:55+5:302019-08-07T05:02:55+5:30

मेरे विचार से मोदी के जमाने की भाजपा के लिए रामजन्मभूमि का मसला उतना अहम नहीं रह गया है जितना मोदी के पहले की भाजपा के लिए था.

Abhay Kumar Dubey's blog: Apart from Ayodhya, Modi has more tips | अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः अयोध्या के अलावा और भी युक्तियां हैं मोदी के पास 

अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः अयोध्या के अलावा और भी युक्तियां हैं मोदी के पास 

विश्व हिंदू परिषद के प्रवक्ता ने दो-टूक शब्दों में कहा है कि अयोध्या के मसले पर कोई बीच का रास्ता संभव ही नहीं है. अयोध्या के ‘सांस्कृतिक भूगोल’ के भीतर कोई मस्जिद नहीं बनने दी जाएगी. चाहे कुछ हो जाए. लेकिन भाजपा के आधिकारिक प्रवक्ता इतनी कड़ी भाषा बोलने से परहेज कर रहे हैं. वे पार्टी की राय बताने के बजाय निजी राय के पीछे छिपते नजर आते हैं. वे कहते हैं कि अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोज सुनवाई में से हिंदू पक्ष का पसंदीदा फैसला नहीं निकला तो संसद को कानून बना कर इंसाफ करना चाहिए. यानी राम मंदिर बनाने के लिए कानून बनना चाहिए. यह ‘चाहिए’ नामक अभिव्यक्ति बताती है कि भाजपा और मोदी की सरकार ने अपनी संबंधित नीति का अंतिम सूत्रीकरण नहीं किया है. क्यों? मेरे पास इस क्यों का एक जवाब है. मेरे विचार से मोदी के जमाने की भाजपा के लिए रामजन्मभूमि का मसला उतना अहम नहीं रह गया है जितना मोदी के पहले की भाजपा के लिए था.
 
अगर मोदी के लिए राम मंदिर का मसला राजनीतिक रूप से महवपूर्ण होता, तो पिछले पांच साल में वे या तो इसके निबटारे के लिए कुछ कदम उठाते, या अगर इसे उलझाए रखने में उनकी दिलचस्पी होती तो इसके इर्दगिर्द किसी न किसी किस्म की राजनीतिक गोलबंदी करने का मीजान बनाते. पूर्ण बहुमत की अत्यंत लोकप्रिय सरकार होने के बावजूद उनका रिकॉर्ड बताता है कि न केवल उन्होंने इन दोनों में से कोई एक रास्ता अपनाना पसंद नहीं किया, बल्कि इस मामले से एक सोची-समझी दूरी बना कर रखी. प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी ने पांच साल में एक बार भी अयोध्या में अपना पैर नहीं रखा. चुनाव लोकसभा का हो या विधानसभा का, वे प्रचार करने के लिए अयोध्या गए ही नहीं. 2019 में उन्होंने उस तरफ का रुख किया भी, तो सोलह किमी पहले रुक गए. उन्होंने माया बाजार की चुनावी रैली में एक घंटे तक भाषण दिया, लेकिन एक बार भी अयोध्या मसले का जिक्र उनकी जुबान पर नहीं आया. अब तो वे लगातार दूसरा चुनाव जीत चुके हैं, और पहले से बेहतर परिणाम हासिल कर चुके हैं. ऐसे में वे यह सोच सकते हैं कि अयोध्या से उनकी राजनीति प्रभावित क्यों होने लगी.

मोदी के इस दृष्टिकोण के पीछे गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के तौर पर एक निकट इतिहास भी है. साथ ही, इसकी एक अधिक व्यापक व्याख्या भी की जा सकती है. मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने राज्य में संघ से आने वाले निर्देशों को मानने से लगातार इंकार किया और शासन में परिवार के हस्तक्षेप को दृढ़तापूर्वक हाशिये पर रखा. संघ अंदरखाने उनसे कभी खुश नहीं रहा, और इसीलिए उसने 2013 में उनके प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने का विरोध किया. मोदी ने यह उम्मीदवारी संघ के समर्थन से नहीं, बल्कि उसके विरोध के बावजूद हासिल की थी. प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने संघ द्वारा नजर रखने के लिए सरकार के भीतर मंत्रलयों में तैनात किए जाने वाले प्रचारक-कारकूनों की संख्या अटल बिहारी वाजपेयी के जमाने से कहीं कम कर दी. अपने पहले कार्यकाल के अंत में जब सरसंघचालक मोहन भागवत ने उन्हें अयोध्या का मसला चुनावी मुद्दे के तौर पर थमाना चाहा तो उन्होंने इसे थामने से इंकार कर दिया. संघ के दबाव के बावजूद उन्होंने 2019 के पहले दिन इंटरव्यू देते हुए स्पष्ट कर दिया कि वे मंदिर बनाने के लिए अध्यादेश नहीं लाएंगे, क्योंकि मामला अदालत में विचाराधीन है. 

दरअसल, व्यापक नजरिये से अगर देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि अयोध्या का मसला जितनी भूमिका निभा सकता था, निभा चुका है. नब्बे के दशक में एक बार इस्तेमाल किए जाने के बाद मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक यह प्रश्न भाजपा के लिए हमेशा एक संभावित चुनावी मुद्दा रहा. इसे लगातार सुलगाए रखने की तरकीब ने हिंदुओं की राजनीतिक एकता के लिए जमीन बनाई. यह जमीन अब राजनीतिक फसल देने लगी है. 40 से 55 फीसदी (कहीं कम, कहीं ज्यादा) लोग भाजपा के पक्ष में वोट देने लगे हैं. इस ¨हंदू गोलबंदी (जिसमें सभी ऊंची जातियां, बड़ी संख्या में पिछड़े और दलित शामिल हैं) के कारण अल्पसंख्यक वोटों का भाजपा विरोध निष्प्रभावी हो गया है. 

संभवत: मोदी का मानना है कि वे मुसलमानों की राजनीतिक दावेदारियों को मंदिर के मुद्दे के अलावा भी अन्य युक्तियों से तोड़ सकते हैं. इन्हीं में से एक युक्ति है तीन तलाक खत्म करने वाला कानून. मोदी के थैले में और भी हिंदुत्ववादी तरकीबें होंगी, जो धीरे-धीरे सामने आएंगी. मेरा आकलन तो यहां तक कहता है कि भाजपा की वर्तमान राजनीति (2014 से अब तक की) अयोध्या-केंद्रित नहीं रह गई है. अयोध्या में क्या होता है- इसका मोदी के राजनीतिक भविष्य पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है. बात यह नहीं है कि मोदी की हिंदुत्ववादी निष्ठाओं में कोई कमी आ गई है, या वे भारत को हिंदू राष्ट्र नहीं बनाना चाहते- यह तो संघ परिवार के भीतर रणनीतियों का संघर्ष है. इसके एक सिरे पर मोहन भागवत हैं और दूसरे पर मोदी. 

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Apart from Ayodhya, Modi has more tips

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