अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: सरकार की किसानों को चुनौती

By अभय कुमार दुबे | Published: September 24, 2020 03:06 PM2020-09-24T15:06:58+5:302020-09-24T15:06:58+5:30

केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन विधेयकों पर किसानों की नाराजगी कुछ राज्यों में नजर आ रही है. इसका राजनीतिक नुकसान भी सरकार को हो सकता है, लेकिन ऐसा लगता है कि इन विधेयकों के लिए मोदी कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं.

Abhay Kumar Dubey's blog: Agricuture bill and Government's challenge to farmers | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: सरकार की किसानों को चुनौती

मोदी सरकार के विधेयक से किसानों में नराजगी (फाइल फोटो)

Highlightsबाजार और किसान के संबंधों को हर तरह से बदलने के लिए संकल्पबद्ध हैं पीएम नरेंद्र मोदी इस बार2006 में बिहार ने एपीएमसी एक्ट खत्म किया था, पर नहीं मिला कोई फायदा, बिहार में खेती का कबाड़ा हो गया

पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और एक हद तक कर्नाटक के किसान नाराज हैं. उन्हें लग रहा है कि सरकार द्वारा लाए गए तीन विधेयक सदियों से चली आ रही कृषि की अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसे परिवर्तन कर देंगे, जिससे उनकी मौजूदा दुनिया पूरी तरह से बदल जाएगी. सरकारी पार्टी के तौर पर भाजपा को इसका राजनीतिक नुकसान भी हुआ है. 

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ के सबसे पुराने पार्टनरों में से एक अकाली दल ने पहले चरण में केंद्र सरकार से नाता तोड़ लिया है, और दूसरे चरण में वह गठजोड़ से ही निकलने की तैयारी में है. लेकिन जैसा कि सरकार के संकल्प से लग रहा है, मोदी कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं. वे बाजार और किसान के संबंधों को हर तरह से बदलने के लिए संकल्पबद्ध हैं- राजनीतिक नुकसान हो या फायदा.

नब्बे के दशक में विश्व बैंक ने सिफारिश की थी कि भारत के हुक्मरानों को ज्यादा से ज्यादा किसानों को देहाती अर्थव्यवस्था से निकाल कर शहरी अर्थव्यवस्था में लाना चाहिए ताकि एक तरफ तो औद्योगिक उत्पादन के लिए सस्ता श्रम मिल सके और दूसरी तरफ जमीन तरह-तरह के उपयोगों के लिए उपलब्ध हो सके. 

वर्ल्ड बैंक के वाइस प्रेसीडेंट ने अनुमान लगाया था कि भारत में अगले बीस साल में यानी 2005 तक इतने लोग देहात छोड़ कर शहर में बस जाएंगे जिनकी संख्या ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस की कुल आबादी यानी बीस करोड़ से भी दुगुनी होगी. इसका मतलब यह हुआ कि 2005 तक करीब चालीस करोड़ लोग गांव छोड़ कर शहर जा चुके होंगे. 

2008 में विश्व बैंक की रिपोर्ट में साफ लफ्जों में कहा गया था कि भारत के हुक्मरानों को जो काम दिया गया था वह उन्होंने नहीं किया. इसलिए अब इस प्रक्रिया को फटाफट पूरा कीजिए. आखिरकार जमीन एक उत्पादक सम्पत्ति है, इसलिए इसे अकुशल लोगों यानी किसानों के हाथ में नहीं छोड़ा जा सकता. यानी जमीन से खेतिहर लोगों को बेदखल करना होगा- भूमि अधिग्रहण और दूसरे तरीकों के जरिये. फिर उन्होंने कहा कि अगर युवा लोग कृषि से जुड़े हैं और उन्हें खेती के अलावा कुछ नहीं आता तो आपको उन्हें प्रशिक्षण देना है ताकि वे बेहतर औद्योगिक मजदूर बन सकें. इसके लिए प्रशिक्षण संस्थान खोले जाएं.

भूमि अधिग्रहण विधेयक पर मोदी सरकार हटी थी पीछे

2014 में पूर्ण बहुमत से चुन कर आई मोदी सरकार ने विश्व बैंक द्वारा थमाई गई इस जिम्मेदारी को पूरा करने की कोशिश के साथ ही अपनी पारी की शुरुआत की. भूमि अधिग्रहण विधेयक तैयार किया गया. चूंकि उसे पारित करवाने लायक बहुमत सरकार के पास नहीं था, इसलिए एक के बाद एक तीन अध्यादेशों के जरिये किसानों से जमीन लेने की कानूनी बाध्यताएं लागू करने का इरादा बनाया गया. लेकिन इस अध्यादेश का किसानों द्वारा जबरदस्त विरोध किया गया. 

यह आंदोलनकारी आवेग जब बढ़ता हुआ दिखा तो मोदी सरकार को कदम खींचने पड़े और वह अध्यादेश वापस ले लिया गया. इन विधेयकों के समर्थकों की दलील है कि एमएसपी की सुविधा के कारण किसानों की प्राथमिकता अनाज पैदा करने की हो जाती है, और वे बाजार एवं फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री (खाद्य प्रसंस्करण उद्योग) के लिए फलों, सब्जियों, फूलों, पशु आहार और पशुपालन की तरफ जाने में दिलचस्पी नहीं दिखाते. नतीजा यह निकलता है कि सरकारी खरीद के जरिये सरकार के गोदामों में तरह-तरह के अनाजों के ढेर लगते चले जाते हैं. 

मसलन, इस समय दो करोड़ दस लाख टन के अनिवार्य बफर स्टॉक से कहीं ज्यादा छह करोड़ टन से ज्यादा का स्टॉक सरकार के पास है. इस भंडार के रखरखाव में सरकार की अच्छी खासी रकम खर्च होती है. सरकारी पक्षकार कहते हैं कि इस परिस्थिति का एक ही इलाज है कि खेती पैदावार को बाजार में लाने की प्रक्रिया पूरी तरह से बदल दी जाए. राज्य का सीधा समर्थन मिलने के बजाय किसानों को एक बाजारोन्मुख प्रणाली के सुपुर्द कर दिया जाए ताकि वे उसी फसल को उगाएं जिसकी बाजार को या खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को जरूरत हो.

गांवों को बाजार से सीधे जोड़ने सहित उठाने होंगे अभी कई कदम

सरकार का यह इरादा केवल तभी कामयाब हो सकता है जब गांवों को बाजार से जोड़ने के लिए सड़कों का जाल बिछा हो, जलवायु-रोधी भंडारण क्षमता प्रचुर मात्र में हो, बिजली की आपूर्ति भरोसे लायक हो और खाद्य प्रसंस्करण करने वाली कंपनियां किसानों की फसल खरीदने के लिए आपस में सच्ची होड़ करें. जाहिर है कि यह एक आदर्श नजारा है जो पूरा नहीं होने वाला. 

2006 में बिहार ने एपीएमसी एक्ट (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) खत्म कर दिया था. चौदह साल में वहां गेहूं की सरकारी खरीद घट कर एक फीसदी रह गई. एक तरह से बिहार में खेती का कबाड़ा हो गया. यह एक बड़ा कारण है कि वहां का ग्रामीण समाज इसीलिए बड़े पैमाने पर मुंबई, पंजाब और दिल्ली जाने के लिए मजबूर है.

एक तरह से मोदी सरकार ने एक बार फिर किसानों के सामने चुनौती फेंकी है. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के समय उसे पीछे हटना पड़ा था. देखें इस बार क्या होता है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Agricuture bill and Government's challenge to farmers

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