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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: भाजपा के भीतर क्षेत्रीय नेतृत्व की समस्या

By अभय कुमार दुबे | Updated: January 1, 2020 06:03 IST

झारखंड विधानसभा के चुनाव नतीजों ने भाजपा के नए साल के जश्न को कुछ बदमजा कर दिया है. इन परिणामों ने भाजपा के सांगठनिक और चुनाव-गोलबंदी के मॉडल पर सवालिया निशान लगा दिए हैं.

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झारखंड विधानसभा के चुनाव नतीजों ने भाजपा के नए साल के जश्न को कुछ बदमजा कर दिया है. इन परिणामों ने भाजपा के सांगठनिक और चुनाव-गोलबंदी के मॉडल पर सवालिया निशान लगा दिए हैं. झारखंड को जैसे ही महाराष्ट्र के घटनाक्रम से जोड़ कर देखा जाता है, वैसे ही ये सवाल और संगीन लगने लगते हैं. इनके केंद्र में है भाजपा के आलाकमान और उसके क्षेत्रीय नेताओं के बीच समीकरणों का वर्तमान चरित्र. नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने और अमित शाह के जरिये पार्टी पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के बाद एक जानी-बूझी योजना के मुताबिक भाजपा के एक नए क्षेत्रीय नेतृत्व को विकसित करने की शुरुआत की थी.

कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में नेतृत्व बदलना उनके हाथ में नहीं था, क्योंकि वहां येदियुरप्पा, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधराराजे जैसे पुराने नेता पहले से जमे बैठे थे. ऊपर से भले ही न कहा गया हो, लेकिन इस पहले से चली आ रही सूबेदारी से मोदी के नेतृत्व में उभर रही भाजपा को दिक्कत थी. ये नेता न केवल निजी छवि और प्रशासनिक शैली के मामले में असंदिग्ध नहीं थे, बल्कि मौका पड़ने पर शीर्ष नेतृत्व के सामने चुनौती भी पेश कर सकते थे.

इनके पास राज्यों में अपना जनाधार था, और इनमें से कुछ कई-कई बार चुनाव जीत सकने की अपनी क्षमता के कारण केंद्र में राजनीति करने की महत्वाकांक्षाएं भी पाल सकते थे. मोदी को इस बात का गहरा एहसास था, क्योंकि वे खुद भी तो इसी प्रकार गुजरात की जमीन से पनपते हुए दिल्ली की जमीन पर काबिज हुए थे. इसलिए उन्होंने जहां पर संभव था, अपनी योजना लागू करने का निश्चय किया. अगले कुछ सालों में महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, झारखंड, असम और त्रिपुरा में वे अपना पसंदीदा नेतृत्व स्थापित करने की रणनीति पर अमल करते हुए दिखे. लेकिन, पहले महाराष्ट्र, कुछ हद तक हरियाणा, असम और अब झारखंड में उनके बैठाए हुए नेता भिन्न संदर्भो में उनके लिए दूसरी तरह की मुश्किलें पैदा करते हुए दिख रहे हैं.

पहले महाराष्ट्र में क्षेत्रीय नेतृत्व के हाथ में सभी पत्ते देने से पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. चुनाव में टिकट उसी के कहने पर दिए गए थे. नतीजे बहुत बुरे तो नहीं, पर दावों के मुताबिक नहीं निकले. सरकार बनाने की कोशिशों के समय भी केंद्रीय नेतृत्व लगातार हस्तक्षेप करने से परहेज करता रहा, यह मान कर कि शिवसेना के साथ अपना समीकरण दुरुस्त करने का दायित्व क्षेत्रीय नेतृत्व का ही है. महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस की निजी छवि भी अच्छी थी. लेकिन झारखंड की हालत बदतर साबित हुई. मुख्यमंत्री रघुबर दास की टोकरी में आलाकमान ने अपने सभी अंडे रख दिए. उन्हीं के कहने पर टिकट दिए गए, उन्हीं की जिद के कारण सरयू राय का टिकट काटा गया, और उनके ऊपर इतना अधिक विश्वास किया कि केंद्रीय पर्यवेक्षकों की विपरीत रपट के बावजूद नेतृत्व नहीं बदला गया.

मुख्यमंत्री की निजी अलोकप्रियता जिस समय अपने चरम पर थी, आलाकमान की कल्पनाओं में वे दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए दिख रहे थे. असम में स्थिति इस समय कम संकटग्रस्त नहीं है. नए नागरिकता कानून के खिलाफ कफ्यरू का उल्लंघन करके सड़कों पर उतरे असमिया नागरिकों के दबाव के जवाब में मुख्यमंत्री सोनोवाल स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ पा रहे हैं. स्वयं भाजपा के विधायकों ने सीएए के मामले में मुख्यमंत्री के ऊपर खासा दबाव बना रखा है. लेकिन वहां भी आलाकमान अभी तक किसी हस्तक्षेप की स्थिति में नहीं आ पाया है. हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर ने स्वयं को प्रशासनिक रूप से अक्षम साबित किया है. उनकी चुनावी रणनीति भी आधी-अधूरी साबित हुई है. अगर कांग्रेस ने वहां थोड़ा अधिक व्यवस्थित ढंग से चुनाव लड़ा होता तो इस समय भाजपा वहां विपक्ष में बैठी नजर आती.

मोदी द्वारा इन मुख्यमंत्रियों को चुनने के पीछे एक पैटर्न था. उनका मानना था कि ये लोग निजी तौर पर ईमानदार हैं. दूसरे, इन लोगों के पास निजी तौर पर राज्य में बहुत सुपरिभाषित जनाधार भी नहीं था. ये लोग अपनी राजनीतिक प्रगति के लिए पूरी तरह से मोदी के मोहताज थे. इनमें से कई अपने राज्यों के प्रभुत्वशाली समुदायों (जैसे, जाट, मराठा और आदिवासी) से भी नहीं आते थे. सत्ता में शुरुआत करने के कारण इनकी तरफ से शीर्ष नेतृत्व को चुनौती मिलने की कोई संभावना नहीं थी. चार-पांच साल बाद अब आलाकमान की समझ में आ रहा है कि शायद एक-दो को छोड़ कर मोदी के चुने हुए मुख्यमंत्री कुशल प्रशासक साबित नहीं हुए हैं. उत्तर प्रदेश में भी योगी आदित्यनाथ की सरकार प्रधानमंत्री के दफ्तर और संघ द्वारा भेजे गए कारकुनों द्वारा ‘माइक्रोमैनेज’ हो रही है.

किसी भी केंद्रीकृत पार्टी के लिए क्षेत्रीय नेतृत्व विकसित करना टेढ़ीखीर ही होता है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की पराजयों के बावजूद पार्टी अभी तक प्रदेश के मंच पर एक भी नया नाम पेश नहीं कर पाई है. यह क्षेत्रीय नेतृत्व की ही कमी है कि भाजपा केंद्र में मजबूत होने के बावजूद राज्यों के स्तर पर एक-एक कर सत्ता से वंचित होती जा रही है. देखना दिलचस्प होगा कि इस चुनौती से मोदी-शाह की जोड़ी कैसे निबटती है.

टॅग्स :झारखंड विधानसभा चुनाव 2019भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)नरेंद्र मोदीअमित शाहमोदी सरकार
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