अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कालेधन की बैसाखी पर खड़ा है चुनाव
By अभय कुमार दुबे | Published: January 5, 2022 10:09 AM2022-01-05T10:09:47+5:302022-01-05T10:11:05+5:30
आज के दौर में चुनाव का हाल ये है कि किसी सामान्य व्यक्ति या कार्यकर्ता के लिए किसी भी पार्टी से टिकट हासिल करना सबसे मुश्किल है. चुनाव में जो कम से कम एक करोड़ रुपए खर्च करने का इंतजाम कर सकता है तो माना जाता है कि उसके पास कम से कम विधानसभा का टिकट पाने की काबिलियत है.
कन्नौज के इत्र व्यापारी के यहां पड़े छापे में मिले सैकड़ों करोड़ रुपयों ने राजनीति में ‘पॉलिटिकल मनी’ की परिघटना पर नए सिरे से रोशनी डाल दी है. ऐसा कोई व्यक्ति, चाहे उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि दलितों की हो या पिछड़ों की या ऊंची जातियों की; किसी पार्टी से टिकट पा ही नहीं सकता अगर उसके पास पॉलिटिकल मनी नहीं है.
जैसे ही वह किसी दल के आलाकमान के सामने टिकट पाने के लिए अर्जी लगाता है, सबसे पहले उसके आर्थिक हुलिया का पता लगाया जाता है. अगर वह अपने चुनाव में कम से कम एक करोड़ रुपए खर्च करने का इंतजाम कर सकता है तो माना जाता है कि उसके पास कम से कम विधानसभा का टिकट पाने की काबिलियत है.
ऐसी बात नहीं कि चुनाव केवल एक करोड़ रुपए से ही लड़ लिया जाएगा. पार्टी भी उसमें अपनी आर्थिक ताकत मिलाएगी, और उम्मीदवार की अपनी आर्थिक ताकत और पार्टी की आर्थिक ताकत मिलकर उस पॉलिटिकल मनी की रचना करेंगे जिससे चुनावी राजनीति चलेगी.
अगर चुनाव लोकसभा का है तो समझ लीजिए कि एक करोड़ से भी काम नहीं चलने वाला. उम्मीदवार को वास्तव में करोड़पति होना चाहिए यानी पांच-दस करोड़ निजी तौर से खर्च करने की हैसियत जिसकी नहीं हो, उसके लिए चुनाव का टिकट पाना तकरीबन नामुमकिन ही है.
करोड़पतियों की सूची देखनी हो तो जिन्हें टिकट मिला है उनकी सूची देख लीजिए. उनकी जीवनशैली पर निगाह डालेंगे तो पता चलेगा कि इस सूची में कीमती विदेशी कारों के मालिकों, आयातित महंगी रायफलों के मालिक, अरबी घोड़ों के अस्तबल रखने वाले, बड़े-बड़े होटलों और सैरगाहों के मालिक, दुर्लभ चिड़ियों का व्यापार करने में करोड़ों खर्च करने वाले, आधुनिक जमींदार यानी पूंजीपति-किसान, मंझोले स्तर के उद्योगपति, पेट्रोल पंपों के मालिकों, ट्रकों और बसों का धंधा करने वालों, करोड़ों की ठेकेदारी करने वालों के नाम मिलेंगे. और, इस मामले में कोई पार्टी पीछे नहीं है.
वे दिन हवा हो चुके हैं जब दलित-जनाधार वाली बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार गरीब तबके से आते थे. वे दिन भी कहीं गुम हो चुके हैं जब पिछड़ों का राजनीतिकरण करने वाले राममनोहर लोहिया ने दावा किया था कि वे ‘रानी के खिलाफ मेहतरानी’ को चुनाव लड़वा सकते हैं. आज तो यह कल्पनातीत हो गया है. पिछड़ों की राजनीति करने वालों के पास भी अकूत पैसा है.
बैकवर्ड हों, दलित हों या ब्राह्मण-ठाकुर-बनिये या मुसलमान-ईसाई-सिख; सबके सब अगर राजनीति में हैं तो निर्विवाद रूप से धनाढ्यों की श्रेणी में आते हैं. राजनीति गरीब का या मध्यवर्ग का खेल उसी हद तक है कि वह केवल मतदाता ही हो सकता है.
यह ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल है कि राजनीति के इस विकृत अमीरीकरण की शुरुआत कब और कहां से हुई.
1952 के चुनाव में लोकसभा क्षेत्र बहुत बड़े-बड़े हुआ करते थे, लेकिन तब उम्मीदवार एक या दो जीपों की मदद से चुनाव लड़ लिया करते थे. फिर धीरे-धीरे विधानसभा स्तर पर जीपों की संख्या पांच हो गई. यानी एक लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए पच्चीस जीपों की जरूरत पड़ने लगी. आजकल यह गिनती बेमानी हो गई है. समझा जाता है कि कांग्रेस का वर्चस्व टूटने के बाद और गठजोड़ राजनीति के आने से पहले पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता के जमाने ने इस सिलसिले को सबसे ज्यादा बढ़ाया.
यही वह वक्त था, जब चुनाव बार-बार और जल्दी-जल्दी होने लगे. सरकार बनाने और बहुमत का जुगाड़ करने के लिए विधायक और सांसद खरीदना अनिवार्य हो गया. इसी अवधि में पॉलिटिकल मनी की अवधारणा सामने आई, क्योंकि एक चुनाव जीतने के बाद तुरंत कभी भी हो सकने वाले दूसरे चुनाव के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना जरूरी हो गया. दो चुनावों की बीच पहले पांच साल की अवधि होती ही थी, जो घटकर डेढ़ या दो साल रह गई.
दूसरे, लोकसभा और विधानसभा के चुनाव आमतौर पर अलग-अलग होने लगे. इसके कारण भी चुनावों की संख्या बढ़ी. पार्टियां और उम्मीदवार लगातार चुनाव के मूड में रहने के कारण दो चुनावों के बीच होने वाली रचनात्मक राजनीति के मुहावरे से वंचित हो गए.
चुनाव में खर्च करने के लिए अनाप -शनाप पॉलिटिकल मनी को बिना भ्रष्टाचार किए जमा नहीं किया जा सकता था. सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की जिस भयानक समस्या से सारा देश जूझ रहा है, उसकी जड़ में निश्चित रूप से यही परिघटना है.
इस समस्या का हल क्या है? एक सुझाव यह दिया जाता है कि सरकार चुनाव लड़ने के लिए धन मुहैया कराए और सारी पार्टियों के उम्मीदवारों को बराबर-बराबर धन आवंटित किया जाए. इसके साथ ही चुनाव के दौरान अन्य स्नेतों से खर्च होने वाले धन पर कड़ी निगरानी रखी जाए.
पहली नजर में यह सुझाव कारगर होने की संभावनाओं से संपन्न लगता है, लेकिन इसे व्यावहारिक बनाने के लिए आवश्यक चिंतन की अभी शुरुआत भी नहीं की गई. चुनाव-प्रक्रिया पर जब तक पॉलिटिकल मनी हावी रहेगी, भ्रष्टाचार की समस्या के निदान की कल्पना भी नहीं की जा सकती.