अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: कलह के बावजूद आगे है उत्तर प्रदेश में भाजपा
By अभय कुमार दुबे | Published: July 21, 2021 12:40 PM2021-07-21T12:40:55+5:302021-07-21T12:40:55+5:30
चुनाव के ठीक पहले तो पार्टियों से गठजोड़ होता है. अगर किसी समुदाय या जाति से मैत्री करनी है तो उसके लिए तो काफी पहले से प्रयास करने होते हैं. मायावती ने इसमें देरी कर दी है.
एक राजनीतिक समीक्षक ने मुझसे कहा है कि उत्तर प्रदेश में गैर-भाजपा दल कुल मिलाकर अपनी बाजी उन वोटों में खेल रहे हैं जो भाजपा के खिलाफ पड़ते रहे हैं. मसलन, वे मुसलमान, यादव और जाटव वोटों के बीच आवागमन करते हुए दिखाई दे रहे हैं. मैं समझता हूं कि यह समीक्षा कुछ उचित नहीं है.
अखिलेश यादव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समर्थन वाले राष्ट्रीय लोकदल और भाजपा से नाराज छोटी-छोटी पिछड़ी जातियों की पार्टियों का गठजोड़ बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
सैद्धांतिक दृष्टि से देखें तो यह एक अच्छी कोशिश है. अगर समाजवादी पार्टी ऐसा कर सकी तो भले ही वह अगला चुनाव न जीते लेकिन वह सामाजिक न्याय की राजनीति में नई जान फूंक सकेगी. यादव वोटरों के साथ जाट वोटर, शाक्य वोटर, निषाद वोटर और ऐसे गैर-यादव पिछड़े समुदाय जुड़ेंगे तो वही नजारा बनेगा जो कभी मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में बना करता था.
उस जमाने में मुलायम सिंह यादव वास्तव में पिछड़ी जातियों के नेता के रूप में उभरते थे. इसी तरह मायावती कोशिश कर रही हैं कि किसी तरह ब्राह्मण की भाजपा से नाराजगी का लाभ उठा कर हिंदू एकता से ब्राह्मण वोटों को अपनी ओर खींच लें.
इसके लिए उन्होंने टीवी पर आकर एक अपील भी जारी की है. उन्होंने ब्राह्मण को 2007 की याद दिलाई है जब उनके समर्थन से बसपा की सरकार बनी थी. बसपा के प्रति हमदर्दी रखने वाले सोच सकते हैं कि यह रणनीति अगर उस समय सफल हो सकती थी, तो इस समय क्यों नहीं हो सकती.
मायावती को 2012 में करीब 23 फीसदी वोट और नब्बे से ज्यादा सीटें मिली थीं. 2017 में उन्हें 22 फीसदी वोट मिले और सीटें घट कर बीस के आंकड़े में आ गईं. ऐसा क्यों हुआ? इसलिए हुआ कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने वोटों को बढ़ा कर चालीस फीसदी के आसपास पहुंचा दिया.
नतीजे के तौर पर बसपा के सीट जीतने की दर कमोबेश तीन गुना घट गई. एक तरह से भाजपा ने इतनी बड़ी चुनावी गोलबंदी करके प्रदेश के चुनावी गणित को पूरी तरह से बदल डाला. अब बीस फीसदी से तीस फीसदी तक वोट प्राप्त करने वाली पार्टी को सरकार बनाने की कल्पना नहीं करनी चाहिए.
2007 में बहुजन समाज पार्टी को और 2012 में समाजवादी पार्टी को तीस फीसदी के इर्दगिर्द वोट मिले थे, और उन्होंने पूर्ण बहुमत की सरकारें बनाई थीं. नई स्थितियों में ऐसा नहीं हो सकता. उ.प्र. में भाजपा के मुकाबले सरकार बनाने के लिए इन पार्टियों को कम-से-कम 35 फीसदी वोटों का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए. इतने वोट इन्हें इतिहास में कभी प्राप्त नहीं हुए हैं. और, भाजपा अगर कमजोर भी होती है, तो भी वह 35 प्रतिशत से ज्यादा वोट प्राप्त कर सकती है.
यहां पूछने लायक सवाल यह है कि क्या अखिलेश और मायावती की ये कोशिशें भाजपा की गाड़ी को पंक्चर कर पाएंगी? आज की तारीख में ऐसा होना संभव नहीं दिख रहा है. कारण यह है कि अखिलेश अगर पिछड़ी जातियों को गोलबंद करते हुए दिखेंगे, तो उसके खिलाफ ऊंची जातियों की एक जबर्दस्त प्रतिक्रिया होने का अंदेशा रहेगा.
उत्तर भारत में भाजपा लंबे अरसे से ऊंची जातियों की स्वाभाविक पार्टी के तौर पर राजनीति कर रही है. न केवल ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य उसे वोट देते हैं, बल्कि कायस्थ, भूमिहार और ऐसी सभी जातियां उसे वोट करती हैं जिनकी आत्मछवि अपर कास्ट की है. अखिलेश की गोलबंदी में अगर किसी तरह से ब्राrाण भी शामिल हो सकेंतभी वे अपने खिलाफ ऊंची जातियों की प्रतिक्रिया रोक पाएंगे.
इसी तरह मायावती ने ब्राह्मण को अपनी ओर खींचने की कार्रवाई में बहुत देर कर दी है. विकास दुबे के एनकाउंटर के समय से वे यह बात कह रही हैं कि ब्राह्मण भाजपा की योगी सरकार से आहत हैं. उनकी बात एक हद तक सही भी है. लेकिन उन्हें बताना चाहिए कि ब्राह्मण मैत्री सम्मेलन की रणनीति अख्तियार करने में उन्होंने इतनी देर क्यों की?
चुनाव के ठीक पहले तो पार्टियों से गठजोड़ होता है. अगर किसी समुदाय या जाति से मैत्री करनी है तो उसके लिए तो काफी पहले से प्रयास करने होते हैं. क्या मायावती भूल गई हैं कि 2007 में ब्राrाणों ने उन्हें वोट तब दिए थे जब उन्होंने तीन साल पहले से इसी तरह के कार्यक्रमों के जरिये विप्र समाज को आश्वस्त कर दिया था? मौजूदा स्थिति में ब्राrाणों को अगर और कोई बेहतर ठिकाना न मिला तो वे रो-पीट कर फिर से अपनी परंपरागत पार्टी भाजपा को ही वोट दे देंगे.
हाल ही में चुनावशास्त्री विद्वान संजय कुमार ने हिसाब-किताब लगा कर बताया है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को तब तक नहीं हराया जा सकता जब तक उसके वोट दस से बारह फीसदी न कम हो जाएं. संजय कुमार ने यह विेषण भी पेश किया है कि भाजपा को विधानसभा चुनाव में लोकसभा के मुकाबले वोट कम जरूर मिलते हैं, लेकिन किसी भी प्रदेश में उसके वोट-प्रतिशत में यह गिरावट इतनी ज्यादा नहीं होती जितनी उत्तर प्रदेश में विपक्ष को जिताने के लिए जरूरी है.
ऐसी सूरत में सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश की गैर-भाजपा पार्टियों के पास ऐसी कौन सी रणनीति है जिसमें भाजपा के ग्राफ को इतने नीचे गिराने की संभावना हो. मेरा विचार है कि अभी तक किसी भी पार्टी के पास ऐसी कोई रणनीति दिखाई नहीं दी है जिससे उत्तर प्रदेश में सत्ता-परिवर्तन की उम्मीद पैदा हो सके. अपने अंतर्कलह के बावजूद आज भी भाजपा ढाई सौ से तीन सौ सीटें जीत सकने वाली पार्टी बनी हुई है.