प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल का ब्लॉग: कोरोना के बाद के दौर में शिक्षा की चिंता
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: May 22, 2020 07:22 AM2020-05-22T07:22:25+5:302020-05-22T07:22:25+5:30
भारत जैसे देश के लिए ऑनलाइन शिक्षा, शिक्षा के आभासी पर्याय वैकल्पिक साधन तो हो सकते हैं पर यह शिक्षा का मुख्य पर्याय नहीं हो सकता. ठीक वैसे ही जैसे भोजन में चटनी और अचार भूख जगा सकते हैं, स्वाद निर्मित कर सकते हैं पर न भूख को शांत कर सकते हैं न पोषण को.
नव कोरोना वायरस की महामारी ने संपूर्ण विश्व सभ्यता के सामने अनेक प्रश्न खड़े किए हैं. ज्ञान केंद्रित समाज के वैश्विक भ्रम को ध्वस्त कर दिया है. दुनिया का समूचा ज्ञान-विज्ञान एक विषाणु से परास्त-सा हो गया है. एक तरह से समकालीन सभ्यता के सभी उपागम व्यर्थ सिद्ध हो गए हैं. समूची मानव प्रगति पर लॉकडाउन हो गया है. यही स्थिति शिक्षा की भी है. प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक सब पर तालाबंदी है. भारत जैसे युवा देश के लिए मानव विकास और आर्थिक प्रगति के साथ-साथ सामाजिकीकरण का एकमात्न सहारा शिक्षा है किंतु दशकों से उपेक्षित शिक्षा वायरस के प्रहार से बिखर गई है.
जब देशभर में नया शैक्षिक सत्न प्रारंभ होने को है, ऐसे में शिक्षण संस्थाओं के सामने गहरा अंधेरा है. कब परीक्षाएं पूरी होंगी, कब परिणाम निकलेगा, कब नए सत्न में प्रवेश संपन्न होंगे और भारत के बाल, तरुण, युवा विद्यार्थियों को अपने भविष्य के सपने सजाने के लिए आवश्यक शिक्षा मिलेगी?
देश में आर्थिक गतिविधियों को शुरू करने की चिंता सभी को है पर जिसके बल पर आने वाले 30-40 साल आर्थिक गतिविधियां चलने वाली हैं, उस पर चर्चा नहीं हो रही है. एक सहज रास्ता निकालने की कोशिश की गई है. कक्षाएं नहीं चल सकतीं. समूह में शिक्षण नहीं हो सकता. प्रत्यक्ष शिक्षण की हजारों वर्षो की परीक्षित प्रणाली से पढ़ाई नहीं हो सकती तो ऑनलाइन विकल्प खुला हुआ है.
भारत जैसे देश के लिए ऑनलाइन शिक्षा, शिक्षा के आभासी पर्याय वैकल्पिक साधन तो हो सकते हैं पर यह शिक्षा का मुख्य पर्याय नहीं हो सकता. ठीक वैसे ही जैसे भोजन में चटनी और अचार भूख जगा सकते हैं, स्वाद निर्मित कर सकते हैं पर न भूख को शांत कर सकते हैं न पोषण को.
कोरोना के इस कालखंड में शिक्षण के सभी डिजिटल पर्याय वैसे ही हैं जैसे अकाल में अन्न के अभाव में भूखे मनुष्य को विटामिन के कैप्सूल पर जिंदा रखने की कोशिश की जाए. भारत जैसे देश के लिए यह भी विचार करना होगा कि शिक्षा केवल बौद्धिक क्षमता, कौशल और तकनीकी दक्षता के लिए नहीं है अपितु वह मनुष्य निर्माण और मनुष्य के सामाजिकीकरण की प्रक्रि या भी है. सोशल डिस्टेंसिंग की सभ्यता में आभासी विश्व के अध्ययन-अध्यापन में आने वाली पीढ़ियों का सामाजिक शिक्षण कैसे होगा. क्या ऑनलाइन का पर्याय वर्तमान पीढ़ी को आभासी जगत, आइसोलेशन में रहने वाला व्यक्ति नहीं बना देगा?
मनुष्य के स्थान पर मशीन को शिक्षक के रूप में देखने वाले लोग किसका अनुसरण करेंगे? श्रेष्ठ मनुष्य बनने की सहस्राब्दियों से चली आ रही अनुसरण की परंपरा में अपने को बेहतर बनाने की पाठय़ेतर प्रक्रि या में सहभागी होना होगा. सौ-डेढ़ सौ वर्षो में ब्लैक बोर्ड से व्हाइट बोर्ड के रास्ते होते हुए मदरबोर्ड पर विकसित हुई शिक्षा कितनी संवेदनहीनता का समाज बना सकती है, इसका अनुभव पूरी दुनिया ने किया है.
कोरोना के छोटे कालखंड में सभ्यता की यांत्रिकता के संकट ने मानव-मूल्यों को तार-तार किया है. यदि आने वाले दिनों में इस वायरस से लड़ते हुए सोशल डिस्टेंसिंग को लंबे समय तक चलाना होगा तो तात्कालिक रूप से शिक्षा को छोड़कर सभ्यता की सभी व्यवस्थाएं चल जाएंगी पर शिक्षा जो सहजीवन, सहअस्तित्व और समानुभूति की सामाजिक मूल्य व्यवस्था का एकमात्न उपागम है, वह नहीं चल पाएगी और यदि एक वर्ष भी ऐसा हो गया तो वैश्विक स्तर पर सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी क्योंकि एक वर्ष का समय एक पूरी पीढ़ी को आभासी जगत का मनुष्य बना देगा.
मानविकी और समाजविज्ञान नष्ट हो जाएगा और केवल विज्ञान-तकनीक के आधार पर मनुष्य का निर्माण नहीं हो सकता. यह आवश्यक है पर इनसे अधिक आवश्यक है मनुष्य. मनुष्य यंत्न मानव न हो जाए, इसके रास्ते तलाशने होंगे और रास्ता यही है कि शिक्षा को केवल सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए बल्कि उसे सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में जन चेतना का हिस्सा होना चाहिए. सभ्य, सुसंस्कृत मनुष्य बनाना प्रत्यक्ष शिक्षण से ही संभव है.
प्रत्यक्ष शिक्षण तभी संभव हो पाएगा जब आर्थिक गतिविधियों की अपेक्षा शैक्षिक गतिविधियों को प्रारंभ करने के प्रति गंभीरता दिखे. केवल वर्तमान की सहूलियतों के लिए मनुष्य के भविष्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता. मानव सभ्यता का इतिहास वर्तमान में कष्ट सहकर भविष्य को सुखमय बनाने का इतिहास है और सभी कालों में शिक्षा इसका एकमेव साधन रही है, पर ज्ञान केंद्रित विश्व के कालखंड में यह उपेक्षित है.
इसके दुष्परिणाम हमें एक अंधेरे में डूबती मानव सभ्यता के रूप में भोगने पड़ सकते हैं. अत: यह वह समय है जब भविष्य को सुखमय बनाने के यत्न किए जाएं और शिक्षा को समग्रता में प्रारंभ किया जाए जिसमें प्रत्यक्ष शिक्षण के साथ अन्य पर्यायों की संभावना तो हो, पर पर्यायों में ही शिक्षित होने की बाध्यता न रहे.