गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: मानव संसाधन विकास का शिक्षा में रूपांतरण
By गिरीश्वर मिश्र | Published: August 21, 2020 03:30 PM2020-08-21T15:30:12+5:302020-08-21T15:30:12+5:30
देश की नई शिक्षा नीति के संकल्प के अनुकूल भारत सरकार का मानव संसाधन विकास मंत्नालय अब ‘शिक्षा मंत्नालय’ के नाम से जाना जाएगा. इस पर राष्ट्रपति की मुहर लग गई है और गजट भी प्रकाशित हो गया है. इस फौरी कार्रवाई के लिए सरकार निश्चित ही बधाई की पात्न है. यह कदम भारत सरकार की मंशा को भी व्यक्त करता है पर सिर्फ मंत्नालय के नाम की तख्ती बदल देना काफी नहीं होगा अगर शेष सब कुछ पूर्ववत ही चलता रहेगा. आखिर पहले भी शिक्षा मंत्नालय नाम तो था ही. स्वतंत्न भारत में मौलाना आजाद, के. एल. श्रीमाली, छागला साहब, नुरुल हसन और प्रोफेसर वी. के. आर. वी. राव जैसे लोगों के हाथों में इसकी बागडोर थी तथा संसद में पूरा समर्थन भी हासिल था. सितंबर 1985 में जब मानव संसाधन का नामकरण हुआ तो पी. वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्नी थे और इस मंत्नालय को भी खुद संभाल रहे थे. वे विद्वान, कई भाषाओं के जानकार और लेखक भी थे. अतएव भारत में शिक्षा की समस्याओं से परिचित न रहे हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता.
गौरतलब है कि विभिन्न आयोगों, समितियों और शोध कार्यो में शुरू से ही शिक्षा की दुर्दशा पर चर्चा होती रही है और गुणात्मक सुधार की जरूरत पर आम सहमति रही है. इसके लिए सुधार लाने में संसाधन की कमी का हवाला दिया जाता रहा है. इन सब सीमाओं के बावजूद शिक्षा का संवर्धन करने के लिए कुछ न कुछ होता रहा और शिक्षा का आख्यान आगे चलता रहा. चूंकि शिक्षा सभ्य जीवन में एक जरूरी कवायद है और उसे रोका नहीं जा सकता, इसलिए शिक्षा के नाम पर संस्थाओं को खोला जाता रहा और निजीकरण को बढ़ावा दिया गया. सरकारी विद्यालय और अन्य संस्थान कमजोर होते गए. इन सबसे शिक्षा में भी वर्ग (क्लास) बनते गए और उसका लाभ अधिकतर उच्च और मध्य वर्ग को मिला.
चिंता व्यक्त करते रहने के बावजूद शिक्षा की प्रक्रिया की समझ और उसमें बदलाव को लेकर गंभीरता नहीं आ सकी. वह सरकारी एजेंडे में वरीयता नहीं पा सकी. जब कभी इस तरह की कोशिश की गई तो राजनीति की छाया हावी होती रही. शिक्षा की विसंगतियों से हम उबर नहीं सके. ऐसे में कुछ अपवाद की संस्थाएं तो बची रहीं और उनकी स्वायत्तता और राजनीतिमुक्तता से उनकी गुणवत्ता भी विश्वस्तरीय बनी रही. शेष अधिकांश संस्थाएं आज त्नाहि माम् कर रही हैं.
विगत वर्षो में मोदी सरकार ने शिक्षा को लेकर हर स्तर पर विचार-विमर्श का दौर चलाया और शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया. अभी उसे मंजूरी दी गई और अब उस पर कार्रवाई का समय आ रहा है. नीति के प्रस्ताव निश्चित रूप से सकारात्मक परिवर्तन का संकेत देते हैं और आशा की जाती है कि इनको लागू करने के अच्छे परिणाम होंगे.
शिक्षा को लेकर कुछ मुद्दों पर अब स्पष्ट सहमति है. शिक्षा सर्वागीण हो इसके लिए शिक्षा को प्रासंगिक, सृजनात्मक, जीवनोपयोगी और सामथ्र्यवान बनाने के लिए प्रयास करना होगा. अत: ज्ञान, कौशल और अनुभव सबको महत्व देना होगा. शिक्षा में अध्ययन के अवसर रूढ़िबद्ध न होकर व्यापक और उन्मुक्त करने वाले होने चाहिए. विषयों के बंधन कम करने होंगे. लोकतंत्न की आकांक्षा के अनुरूप उसे समावेशी बनाना होगा ताकि सबकी भागीदारी हो सके. मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा होनी चाहिए. साथ ही बहुभाषिकता को बढ़ावा देना होगा. बच्चों के लिए पोषण की आवश्यकता है.
संरचनात्मक ढांचे को पुष्ट करना आवश्यक है. शिक्षा संस्थानों को स्वायत्तता मिलनी चाहिए. शिक्षक प्रशिक्षण को सुदृढ़ करना होगा. शिक्षा का समाज की अन्य संस्थाओं के साथ संवाद होना चाहिए. स्थानीय स्तर पर संवेदना और कार्य का अवसर मिलना चाहिए.
शिक्षा को संस्कृति और प्रकृति के साथ जुड़ना चाहिए. समाज में जड़ता की जगह आशा का मनोभाव लाना भी आवश्यक होगा. दुर्भाग्य से शिक्षा तंत्न और उसकी नौकरशाही आज कुटिल होती गई है, उसे तब्दील करना बेहद मुश्किल पर जरूरी है. सारी कोशिशों के बावजूद कई विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति वर्षो से नहीं हुई है, पर प्रवेश और परीक्षा का क्र म जारी है. हम कहां पर खड़े हैं, उसकी वस्तुस्थिति का आकलन करना आवश्यक है.
क्षेत्रवाद, जातिवाद, परिवारवाद और भ्रष्ट आचरण आदि के कारण अनेक संस्थाए रुग्ण होती गई हैं. साथ ही शिक्षा अपने परिवेश से भी प्रभावित होती है. बाजार, मीडिया और व्यापक घटनाक्रम उसे भी प्रभावित करता है, पर शिक्षा से अपेक्षा है कि जो अकल्याणकर है, उसका प्रतिरोध करते हुए नए-नए सपने बुनने की. इनकी जगह तो शिक्षा केंद्र हैं. इनमें विचार के स्वराज की संभावना को आकार देना होगा. नई शिक्षा नीति में इसके अवसर हैं. उन पर अमल करने की जरूरत है. आशा है ‘शिक्षा’ में जिस प्रक्रि या का बोध निहित है उस दिशा में शिक्षा मंत्नालय अग्रसर होगा. नाम के साथ काम भी होगा.