रसायनमुक्त खिलौनों का बाजार, प्रमोद भार्गव का ब्लॉग
By प्रमोद भार्गव | Published: March 8, 2021 05:49 PM2021-03-08T17:49:32+5:302021-03-08T17:50:30+5:30
सरकार रसायन क्षेत्र के लिए उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना लाने पर विचार कर रही है. इससे घरेलू विनिर्माण और निर्यात को प्रोत्साहन मिलेगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रसायनमुक्त और पर्यावरण हितैषी खिलौने बनाने का आह्वान व्यापारियों से किया है.
उन्होंने यह बात भारतीय खिलौना मेले में कहते हुए कहा कि अगर देश के खिलौना उत्पादकों को वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी बढ़ानी है तो उन्हें पर्यावरण-अनुकूल पदार्थों का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा. खिलौनों के क्षेत्र में देश के पास परंपरा, तकनीक, विचार और प्रतिस्पर्धा है. गोया हम आसानी से रसायन-युक्त खिलौनों से छुटकारा पा सकते हैं.
देश में फिलहाल खिलौना उद्योग करीब 7.20 लाख करोड़ का है. इसमें भारत की हिस्सेदारी नगण्य है. देश में खिलौनों की कुल मांग का करीब 85 प्रतिशत आयात किया जाता है. इस स्थिति को बदलने की जरूरत है. इससे हम आत्मनिर्भर बनने के साथ-साथ दुनिया भर की जरूरतों को भी पूरा कर सकते हैं, क्योंकि हमारे पास देशज तकनीक के साथ-साथ ऐसे सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं, जो कम्प्यूटर खेलों के माध्यम से भारत की कथा-कहानियों को दुनियाभर में पहुंचा सकते हैं.
भारत में खिलौना निर्माण का इतिहास अत्यंत प्राचीन है. मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में अनेक प्रकार के खिलौने मिले हैं. ये मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, धातु, चमड़ा, कपड़े, मूंज, वन्य जीवों की हड्डियों व सींगों और बहुमूल्य रत्नों से निर्मित हैं. जानवरों की असंख्य प्रतिकृतियां भी खिलौनों के रूप में मिली हैं.
खिलौनों की अत्यंत प्राचीन समय से उपलब्धता इस तथ्य का प्रतीक है कि भारत में खिलौना निर्माण लाखों लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन था और ये कागज, धातु व लकड़ी से स्थानीय व घरेलू संसाधनों से बनाए जाते थे. यही खिलौने बच्चों के मनोरंजन का मुख्य साधन थे. मानव जाति के विकास के साथ-साथ खिलौनों के स्वरूप व तकनीक में भी परिवर्तन होता रहा है.
इसीलिए जब रबर और प्लास्टिक का आविष्कार हो गया तो इनके खिलौने भी बनने लगे. आटो-इंजीनियरिंग अस्तित्व में आई तो चाबी और बैटरी से चलने वाले खिलौने बनने लग गए. नौवें दशक में जब कम्प्यूटर व डिजिटल क्र ांति हुई तो एक बार फिर खिलौनों का रूप परिवर्तन हो गया. अब कम्प्यूटर व मोबाइल स्क्रीन पर लाखों प्रकार के डिजिटल खेल अवतरित होने लगे हैं.
हालांकि इनमें अनेक खेल ऐसे भी हैं, जो बाल-मनों में हिंसा और यौन मनोविकार भी पैदा कर रहे हैं. चीन से इनका सबसे ज्यादा आयात होता है. इसीलिए प्रधानमंत्री ने भारतीय लोक-कथाओं व धार्मिक प्रसंगों पर डिजिटल लघु फिल्में बनाने की बात कही है. इससे न केवल बच्चे खेल-खेल में शिक्षित होंगे, बल्कि संस्कारवान भी होंगे.
यदि खिलौनों के निर्माण में हमारे युवा लग जाएं तो ग्रामीण व कस्बाई स्तर पर हम ज्ञान-परंपरा से विकसित हुए खिलौनों के व्यवसाय को पुनर्जीवित कर सकते हैं. ये खिलौने हमारे लोक-जीवन, संस्कृति-पर्व और रीति-रिवाजों से जुड़े होंगे. इससे हमारे बच्चे खेल-खेल में भारतीय लोक में उपलब्ध ज्ञान और संस्कृति के महत्व से भी परिचित होंगे.
दूसरी तरफ रबर, प्लास्टिक व डिजिटल तकनीक से जुड़े खिलौनों का निर्माण स्टार्टअप के माध्यम से इंजीनियर व प्रबंधन से जुड़े युवा कर सकते हैं. खिलौना उद्योग से जुड़े परंपरागत उद्योगपति अत्यंत प्रतिभाशाली व अनुभवी हैैं, इसलिए वे इस विशाल व्यवसाय में कुछ नवाचार भी कर सकते हैं. कालांतर में ऐसा होता है तो हम एक साथ कई चुनौतियों का सामना कर सकेंगे.
एक, चीन के वर्चस्व को चुनौती देते हुए उससे खिलौनों का आयात कम करते चले जाएंगे. दो, खिलौना निर्माण में कुशल-अकुशल व शिक्षित-अशिक्षित दोनों ही वर्गों से उद्यमी आगे आएंगे, इससे ग्रामीण और शहरी दोनों ही स्तर पर आत्मनिर्भरता बढ़ेगी.
यदि हम उत्तम किस्म के डिजिटल-गेम्स बनाने में सफल होते हैं तो इन्हें दुनिया की विभिन्न भाषाओं में डब करके निर्यात के नए द्वार खुलेंगे और खिलौनों के वैश्विक व्यापार में हमारी भागीदारी सुनिश्चित होगी. खिलौना निर्माण एक ऐसा अनूठा काम है, जिसमें गृह उद्योग अर्थात हस्त-शिल्प से लेकर लघु और मध्यम उद्योग तक आसानी से विकसित किए जा सकते हैं. साफ है, युवा अपने गौरवशाली अतीत से स्वर्णिम भविष्य गढ़ सकते हैं.
इस व्यापार में अनंत संभावनाएं हैं. वर्तमान में देश में खिलौनों का बजार 1.7 अरब अमेरिकी डॉलर का है, जिसमें से हम 1.2 अरब डॉलर के खिलौने आयात करते हैं. देश में चार हजार से ज्यादा खिलौने बनाने की इकाइयां हैं, जिनमें से 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में आती हैं. दरअसल भारत में संगठित खिलौना बाजार शुरुआती चरण में है.