अकाल वित्तीय मौत के मुहाने पर पाकिस्तान
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 3, 2018 07:00 AM2018-07-03T07:00:41+5:302018-07-03T07:00:41+5:30
पाकिस्तान में इस महीने चुनाव हैं। प्रचार के शोर में दबे पांव आए अकाल मौत के खतरे का संदेश किसी ने नहीं देखा। चुनाव के बाद नई सरकार के लिए एक जिंदा देश की हुकूमत बहुत कठिन होने वाली है। मुल्क की वित्तीय स्थिति देश को दिवालियेपन का रास्ता दिखा रही है। पाकिस्तानी रुपया हिंदुस्तान के पचास पैसे के बराबर रह गया है और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक डॉलर वहां के करीब-करीब 120 रुपए के बराबर हो गया है।
लेखक- राजेश बादल
पाकिस्तान में इस महीने चुनाव हैं। प्रचार के शोर में दबे पांव आए अकाल मौत के खतरे का संदेश किसी ने नहीं देखा। चुनाव के बाद नई सरकार के लिए एक जिंदा देश की हुकूमत बहुत कठिन होने वाली है। मुल्क की वित्तीय स्थिति देश को दिवालियेपन का रास्ता दिखा रही है। पाकिस्तानी रुपया हिंदुस्तान के पचास पैसे के बराबर रह गया है और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक डॉलर वहां के करीब-करीब 120 रुपए के बराबर हो गया है। लेकिन चिंता की गंभीर वजह यह नहीं है। पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार सिकुड़ता जा रहा है। पिछले साल की तुलना में इस बरस आई गिरावट दयनीय है। मई 2017 में यह भंडार 16।4 अरब डॉलर बचा था जो खतरे के निशान से काफी ऊपर था। इस साल यह और घटकर 9।66 अरब डॉलर रह गया। बीते वर्षो में यह भंडार बढ़ा नहीं है, बल्कि गिरावट ही आती रही है। मसलन 2016 में यह भंडार 18।1 अरब डॉलर था। देश में आयात और निर्यात का संतुलन बिगड़ा हुआ है। आयात भरपूर हो रहा है। निर्यात में कमी आती जा रही है। स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान ने छह महीने में तीन बार रुपए का अवमूल्यन किया, लेकिन कोई सुधार नहीं हुआ। आयात में कमी नहीं आई अलबत्ता निर्यात में मामूली वृद्धि हुई, जो ऊंट के मुंह में जीरे जैसी है।
पाकिस्तान के वित्तीय घाटे का हाल और भी खराब है। चालू आर्थिक वर्ष में देश का घाटा 14।03 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी होने के कारण साल समाप्त होने तक यह घाटा 16 अरब डॉलर पहुंच जाने की आशंका है। पिछले साल भी यह घाटा 9।35 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर था। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि शासन चलाने वाले उनकी नहीं सुनते। फौज की अपनी दिलचस्पियां हैं और वो इतनी गहराई से संकट को समझना ही नहीं चाहती। स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान से जुड़े रहे अर्थशास्त्नी मुश्ताक खान तो साफ कहते हैं कि मुल्क के नीति निर्माता घाटे में कमी का प्रयास नहीं कर रहे हैं। हर मामले में रोते बच्चे की तरह चीन की गोद में बैठने की जिद ठीक नहीं है। कर्ज लेकर घी पीने की आदत से पाकिस्तान ने अपने को अलग नहीं किया तो देश में आर्थिक अराजकता का खतरा है। कर्ज हर समस्या का समाधान नहीं है।
चीन के हाथ में पाकिस्तान की प्राणवायु का सिलेंडर है। उसने पाकिस्तान को ऋण-जाल में चकरघिन्नी बना दिया है। पाकिस्तान की हालत सांप-छछूंदर जैसी हो गई है। वो चीन को छोड़ नहीं सकता और साथ रहता है तो चीन का उपनिवेश बन कर रह जाएगा। चीन ने पाकिस्तान की वित्तीय स्थिति को इंटेंसिव केयर यूनिट में देखकर पिछले रविवार को ही एक अरब डॉलर का कर्ज दिया है। इससे दो महीने पहले ही बाजार दर पर चीनी बैंकों ने एक अरब डॉलर का ऋण दिया था। अकेले मौजूदा वित्तीय वर्ष में ही पाकिस्तान चीन से पांच अरब डॉलर उधार ले चुका है, जो लड़खड़ाती वित्त व्यवस्था का ऐतिहासिक बिंदु है। पिछले साल भी पाकिस्तान ने चीन और चीनी बैंकों से कोई 4।50 अरब डॉलर उधार लिए थे। पाकिस्तान पर कुल विदेशी कर्ज करीब 92 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है, जो देश के संसाधनों को देखते हुए विकराल है। हालांकि चीन हमेशा यह कोशिश करता रहा है कि पाकिस्तान को दिए जाने वाले उधार का खुलासा न हो। इसके दो कारण हैं - एक तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में संदेश जाएगा कि आतंकवाद को पालने-पोसने वाले देश की आर्थिक मदद कर रहा है और दूसरा, चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की योजना पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
विडंबना यह कि अफगानिस्तान और भारत में आतंकवादियों की मदद के लिए पाकिस्तान हथियार और प्रशिक्षण में कोई कमी नहीं कर रहा। चीन उसके व्यवहार का फायदा उठाता रहा है। पिछले साल ही पाकिस्तान ने 53।5 करोड़ डॉलर के हथियार आयात किए। इनमें अमेरिका से केवल 2।1 करोड़ डॉलर और चीन से 51।4 करोड़ डॉलर के हथियार लिए गए। इससे भारत की सुरक्षा एजेंसियों का दावा मजबूत होता है कि अब आतंकवादियों के पास चीन में बने हथियार पहुंच रहे हैं। अगर पाकिस्तान यही नीति छोड़ दे तो उसका बड़ा भला हो जाएगा। देखना है यह कब तक चलता है क्योंकि चीन की आर्थिक सेहत भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। चीनी कंपनियों के कांट्रैक्ट में कमी आई है। चीन के अर्थशास्त्रियों ने भी सरकार को आगाह किया है कि वह दूसरे देशों को अंधाधुंध कर्ज न दे। पहले उसकी वापसी सुनिश्चित करे।
पाकिस्तान को एक सहारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी मिलता रहा है। तीस बरस में पाकिस्तान बारह बार इस संस्था के दरवाजे खटखटा चुका है। पांच साल पहले मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को 6।7 अरब डॉलर की मदद की थी। इस बार चुनाव के बाद जो भी नई सरकार आएगी, उसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास जाना ही होगा। हो सकता है वर्तमान अंतरिम सरकार को ही चुनाव संपन्न कराने तक धन का बंदोबस्त करने के लिए इस संस्था के पास जाना पड़े। सिर्फ डेढ़ महीने में पाकिस्तान का खजाना पूरी तरह खाली हो जाएगा। इसे देखते हुए राजनीतिक दलों ने वित्तीय कंगाली को चुनावी मुद्दा बना लिया है। इमरान खान अपनी सभाओं में साफ-साफ कह रहे हैं कि अगर उनकी सरकार बनी तो वो पहला काम मुद्राकोष से मदद लाने का करेंगे, जिससे पाकिस्तान को अकाल आर्थिक मौत से बचाया जा सके।
दरअसल पाकिस्तान ने भारत से नफरत को हवा दी जिसके कारण उसका स्वाभाविक विकास नहीं हो सका। अब रिश्तों का फासला अधिक है और अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि हिंदुस्तान भी सहायता के लिए क्यों सोचे? वह हवन करते हाथ क्यों जलाए? इतिहास की भूलें कई बार ठीक नहीं होतीं। पाकिस्तान ने कश्मीर के मसले पर पहले सोवियत संघ का दरवाजा खटखटाया, फिर अमेरिका की शरण में गया, इसके बाद इस्लामी देशों के दरवाजे मत्था टेका और अब चीन की गोद में बैठ कर कश्मीर पाना चाहता है। वह उस देश से हाथ नहीं मिलाना चाहता, जिससे नफरत के कारण उसकी आर्थिक हालत खराब हो चुकी है।