IndiGo Flight Cancellations: हर कोई इस वक्त यही सवाल पूछ रहा है कि इंडिगो की हालत इतनी खराब कैसे हो गई? लोगों के मन में शंका ने घर बना लिया है कि इसके पीछे कहीं कोई गहरी साजिश तो नहीं? लोग सरकार से भी सवाल पूछ रहे हैं कि ऐसी स्थिति बन जाने की कल्पना क्या अधिकारियों को नहीं थी? मगर जवाब देने वाला कोई नहीं है. विमानतल के नजारे बाहर बैठे लोगों के खून खौला रहे हैं तो जरा सोचिए कि जो लोग विमानतल पर बारह-पंद्रह-बीस घंटे फंसे होंगे, उनकी हालत क्या होगी? सिस्टम में बैठे बड़े-बड़े लोग क्या इसलिए बेबस हैं कि उनके खून का उबाल ठंडा हो चुका है?
इंडिगो एयरलाइंस के बारे में हर किसी की सोच यही थी कि यदि आप इंडिगो से यात्रा कर रहे हैं तो यह मान कर चलिए कि समय पर अपने गंतव्य पर जरूर पहुंच जाएंगे. ऐसे मौके कम ही आते थे जब परिचालन और प्रबंधन संबंधी समस्याओं के कारण विलंब होता हो! यदा-कदा दूसरे कारणों से विलंब हुए लेकिन इंडिगो पर यात्रियों का भरोसा इस कदर बढ़ता गया कि इसे फेवरेट एयरलाइंस कहा जाने लगा.
कंपनी ने यात्रियों के इस भरोसे के कारण तेजी से अपना विस्तार किया. आंकड़े बताते हैं कि 2013 में एविएशन सेक्टर में इंडिगो की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत के आसपास थी जो 2025 में 64 प्रतिशत से ज्यादा हो गई. यानी बारह वर्षों में हिस्सेदारी दोगुनी हो गई! इसी दौरान दूसरी विमानन कंपनियां दम तोड़ती गईं. इंडिगो बेताज बादशाह बन गया! सरकार से बस यहीं चूक हो गई!
किसी भी सेक्टर में किसी भी निजी कंपनी का एकाधिकार हो जाता है तो उसके बेकाबू हो जाने की आशंका जन्म लेती है मगर सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया. सरकार मानकर चलती रही कि इंडिगो के एकाधिकार से कोई समस्या पैदा नहीं होगी. मगर इंडिगो में जो लोग बैठे हैं, उन्हें निश्चय ही इस बात का गुमान है कि भारत के एविएशन सेक्टर में वे बेताज बादशाह हैं.
और जब इस तरह का गुमान पैदा होता है तो यह भाव भी जन्म लेता है कि बादशाह को कोई कैसे आदेश दे सकता है? भले ही वह सरकार ही क्यों न हो! बस समस्या यहीं पैदा हो गई. नागरिक उड्डयन महानिदेशालय (डीजीसीए) ने सुरक्षा मानकों को ध्यान में रखते हुए नियमों में कुछ परिवर्तन किए.
मसलन, पहले एक सप्ताह के काम के बाद पायलट को 36 घंटे का आराम दिए जाने का प्रावधान था जिसे नए नियमों में 48 घंटे किया गया. इसके साथ ही 28 दिनों की अवधि में किसी भी पायलट को 100 घंटे से ज्यादा उड़ान नहीं भरनी चाहिए. 13 घंटे से ज्यादा की ड्यूटी नहीं होनी चाहिए. जब यह नियम आया तो इंडिगो ने इसका प्रतिरोध किया और कहा कि इससे समस्याएं पैदा होंगी.
इस बीच मामला कोर्ट भी चला गया. कोर्ट ने कहा कि इसे दो चरणों में लागू किया जाए. पहला चरण जुलाई में लागू हो गया और दूसरा चरण नवंबर में लागू होना तय हुआ. कायदे से इंडिगो को इसकी तैयारियां करनी चाहिए थीं. यानी जरूरत के अनुरूप नए पायलट्स की नियुक्ति होनी चाहिए थी. मगर इंडिगो ने शायद ऐसा मन बना लिया था कि वह सरकार के सामने नहीं झुकेगी.
यदि मन नहीं बनाया होता तो निश्चय ही नए पायलट्स की नियुक्ति शुरू हो जानी चाहिए थी. मगर ऐसा नहीं हुआ. डीजीसीए के नियमों का दूसरा हिस्सा जैसे ही लागू हुआ, इंडिगो ने हाथ खड़े कर दिए. पहले 100, फिर 150, फिर 300, फिर 800 और फिर ज्यादातर उड़ानें कैंसिल हो गईं! ऐसा लगा जैसे आसमानी आफत बरस पड़ी है.
सूचना के अभाव में या समय पर सूचना नहीं मिलने के कारण यात्री विमानतल पर पहुंचते गए और बड़ी तेजी से हालात बस स्टैंड से भी बदतर हो गए. यहां तक कि वेब चेक इन करने के बाद भी विमान कैंसिल हुए. उन लोगों की हालत तो और भी बदतर हो गई जिनका लगेज अंदर जा चुका था और वे यदि बाहर भी जाना चाह रहे थे तो उनके पास उनका सामान नहीं था.
विमानतल पर खाने-पीने का सामान खत्म हो चुका था और यदि मिल भी रहा था तो उसकी कीमत इतनी थी कि सामान्य यात्री तो खरीदने की हिम्मत भी नहीं कर सकता है. इंडिगो ने जिस तरह से इस पूरे प्रसंग को हैंडल किया, उससे भी यह लगता है कि समस्या को गंभीर बनाने की कोशिश की गई.
बहुत से यात्री तो इंडिगो के आश्वासन पर टिके रहे कि विमान अब उड़ान भरेगा...विमान तब उड़ान भरेगा...एक घंटे...दो घंटे, तीन घंटे और फिर घंटे ही घंटे! बहुत से यात्री तो पूरी रात और पूरे दिन एयरपोर्ट पर बैठे रहे! नाराज होते रहे, चीखते रहे, चिल्लाते रहे लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था. विमानतल पर तैनात इंडिगो के कर्मचारी करते भी तो क्या करते.
उन्हें स्पष्ट निर्देश भी शायद नहीं मिल रहे थे. हां, इस बात की तारीफ करनी पड़ेगी कि इंडिगो के कर्मचारी लोगों का गुस्सा झेलते रहे लेकिन अपना धैर्य नहीं खोया. इंडिगो के हालात अब भी सुधरे नहीं हैं जबकि डीजीसीए झुक गया है और नए नियमों को लागू करना फिलहाल मुल्तवी कर दिया गया है. मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार को झुकने की जरूरत क्यों पड़ी?
क्या इंडिगो ने सरकार को झुका दिया? या फिर और कोई बात है? यदि कोई बात है तो सारा मामला आम आदमी के सामने आना चाहिए क्योंकि इंडिगो ने हवाई यात्रियों का चीर हरण किया है. पूरी व्यवस्था को उसने पंगु बना दिया है. उसने साबित कर दिया है कि एकाधिकार कभी भी अहंकार में बदल सकता है और व्यवस्था को चुनौती दे सकता है.
इसलिए किसी का भी एकाधिकार नहीं होना चाहिए. इसलिए सरकार को खुद से एक सवाल पूछना चाहिए कि एविएशन क्षेत्र में नए निवेशक क्यों नहीं आ रहे हैं और जो पहले से इस क्षेत्र में थे, वे आकाश से बाहर क्यों हो गए? सरकार को खुद से यह सवाल भी पूछना चाहिए कि इंडिगो ने जो तमाशा किया, क्या उसे इस बात की भनक नहीं लग पाई?
इंडिगो जब नए पायलट्स की नियुक्ति नहीं कर रहा था तो क्या डीजीसीए के अधिकारियों को सतर्क नहीं हो जाना चाहिए था? एक और सवाल कि जब दूसरे एयरलायंस ने इंडिगो के तमाशे के बाद अपनी फ्लाइट्स की टिकट की कीमतें अनायास बढ़ाना शुरू कर दिया तो क्या डीजीसीए को तत्काल कदम नहीं उठाना चाहिए था? और हालात के कारणों को जानने के लिए जो समिति गठित की गई है,
उसे पंद्रह दिनों का समय दिए जाने की क्या जरूरत थी. तमाशे का कारण तो घंटे दो घंटे का विश्लेषण ही उजागर करने के लिए काफी है. सवाल दाल में कुछ काला होने का नहीं है, सवाल है कि पूरी दाल ही काली कैसे हो गई? लेकिन जवाब मिलने की उम्मीद मत कीजिए क्योंकि उबलने वाला खून ठंडा हो चुका है और हर तरफ बेबसी छाई हुई है.