गुरचरण दास का नजरियाः निरंतर उच्च विकास से ही आएंगे अच्छे दिन
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 5, 2018 05:06 AM2018-08-05T05:06:13+5:302018-08-05T05:06:13+5:30
अर्थशास्त्र के इस सबक को हम भूल गए प्रतीत होते हैं कि सिर्फ उच्च विकास के जरिए ही एक गरीब देश अमीर बनने की उम्मीद कर सकता है।
गुरचरण दास
मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में अरविंद सुब्रमण्यन की हाल की विदाई ने हमारी शब्दावली में एक नया मुहावरा शामिल किया है, ‘लांछित पूंजीवाद’। इससे संकेत मिलता है कि भारत में मुक्त बाजार के लिए परिदृश्य अभी भी सहज और स्वाभाविक नहीं है। समस्या कहीं गहरी है। जब कभी वैश्विक आर्थिक संकट पैदा होता है तो आर्थिक विकास पर सवाल उठाने के पश्चिम के नवीनतम रवैये को बहुत से भारतीयों ने बिना सोचे-समझे अपना लिया है। अर्थशास्त्र के इस सबक को हम भूल गए प्रतीत होते हैं कि सिर्फ उच्च विकास के जरिए ही एक गरीब देश अमीर बनने की उम्मीद कर सकता है। जब आपके यहां प्रति व्यक्ति आय 40 हजार डॉलर हो तो विकास के बारे में शक्की होना सही हो सकता है, लेकिन जब यह दो हजार डॉलर से भी कम हो, तब नहीं। यूपीए-2 की विफलता में इसका काफी हाथ था कि उसने बराबरी के हक के लिए विकास को छोड़ दिया था; लेकिन अब तक भाजपा भी ‘अच्छे दिन’ नहीं ला पाई है क्योंकि उसने एकनिष्ठता से रोजगार और विकास पर ध्यान केंद्रित नहीं किया।
वर्ष 2010 के पूर्वार्ध में एक टीवी कार्यक्रम में मैंने इस बात पर खुशी जाहिर की थी कि भारत की विकास दर पिछली तिमाही में दस प्रतिशत को पार कर गई थी। मैंने कहा था कि ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि यह पिछले एक दशक से लगातार आठ प्रतिशत की अभूतपूर्व दर से बढ़ती रही थी। भारत आखिरकार 1991 के आर्थिक सुधारों का पुरस्कार हासिल कर रहा था और यदि यह वृद्धि अगले दो दशकों तक जारी रही तो भारत एक सम्मानजनक मध्यमवर्गीय देश बन जाएगा। मुझे तब हैरानी हुई जब अन्य पैनलिस्टों ने मुझ पर आक्रमण किया। पहले ने इसे ‘रोजगारविहीन’ विकास कहते हुए खारिज किया। दूसरे ने ‘समावेशी विकास’ की जरूरत पर मुझे शिक्षित करना शुरू कर दिया। मुझे दुख हुआ और हंसी भी आई। दुनिया के सारे देश इस तरह की साल दर साल उच्च विकास दर हासिल करने के लिए मरे जा रहे हैं और यहां दो योग्य राजनेता इसके बारे में शर्मिदा हैं!
विकास के बारे में अविश्वास सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद के दिनों में अपने चरम पर पहुंच गया था। नतीजतन, सरकार ने विकास की ओर से अपनी आंखें फेर लीं और इसके बजाय मनरेगा, खाद्य सुरक्षा तथा गरीबों को मुफ्त में दी जाने वाली वस्तुओं पर अपना ध्यान केंद्रित किया, जिसने कुख्यात ‘नीतिगत पक्षाघात’ का नेतृत्व किया। कोई आश्चर्य नहीं कि 2011 के बाद विकास गोते खा गया और और इससे भाजपा को विकास के वादे (जो उच्च विकास दर और रोजगार का कोड वर्ड था) के सहारे सत्ता पाने में मदद मिली। सात साल बाद भी अर्थव्यवस्था 2011 के पहले की गति हासिल नहीं कर पाई है।
जीडीपी विकास दर पर सवाल उठाना अमीर देशों में समझा जा सकता है जहां हालिया दशकों में विकास का लाभ सबको समान रूप से नहीं मिला है। अमेरिका में ट्रम्प के सत्ता में आने के पीछे आंशिक रूप से इसका भी हाथ था। भारत को इसकी नकल नहीं करनी चाहिए बल्कि यह सबक लेना चाहिए कि कैसे पश्चिम और सुदूर पूर्व के देशों ने समृद्धि हासिल की है। दुनिया में गंभीर विकास वर्ष 1800 के आसपास औद्योगिक क्रांति के साथ शुरू हुआ। पिछले दो सौ वर्षो में दुनिया के औसत जीवन स्तर में अविश्वसनीय वृद्धि हुई है। वर्ष 1800 तक दुनिया का औसत प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 200 डॉलर के नीचे था; जो कि वर्ष 2000 में बढ़कर 6539 डॉलर हो गया। जीवन स्तर में वृद्धि अभूतपूर्व आर्थिक विकास का परिणाम है। यहां तक कि आजादी के बाद भारत की विकास दर भी तुलनात्मक रूप से 1950 के 71 डॉलर प्रति व्यक्ति से बढ़कर 2018 में वार्षिक 1975 डॉलर प्रति व्यक्ति हो गई। चीन में तो यह वृद्धि और भी नाटकीय रही है।
अब मैं विकास पर संदेह करने वालों से पूछता हूं : क्या दुनिया में औसत जीवन स्तर में इतनी विशाल वृद्धि कोई बुरी चीज है? इस अवधारणा की स्पष्ट सीमाएं हैं। जीडीपी आय के वितरण, सरकारी सेवाओं के मूल्य, स्वच्छ हवा, जीवन निर्वाह के लिए किसानों की मेहनत और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में लगे लोगों को प्रतिबिंबित नहीं करती है जो कि दुनिया की जनसंख्या का एक चौथाई हैं। न ही इसमें घरेलू कार्यो और बच्चों तथा बुजुर्गो की देखभाल को शामिल किया जाता है, जो कि प्राय: महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। यदि अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और लोगों की बड़ी संख्या को इसका लाभ नहीं मिल रहा है तब यह पूछना उचित है कि जीडीपी विकास दर किसके लिए है। लेकिन एक गरीब देश के लिए यह बात सच नहीं है जहां विकास भारी लाभ लेकर आता है और वामपंथ की इस भविष्यवाणी को नकार देता है कि बाजार मजदूरों को निर्धन बना देगा।
मैं पर्यावरणविदों से पूरी तरह सहमत हूं जो पानी की अधिकाधिक खपत, कार्बन डाइऑक्साइड के अधिकाधिक उत्सजर्न और अधिकाधिक कोयला जलाए जाने से चिंतित हैं। निश्चित रूप से भारत को अपनी हवा और अपनी नदियों को साफ करना चाहिए। लेकिन आर्थिक विकास को प्रदूषण से जोड़ना और यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि हमें विकास को अपनी प्राथमिकता सूची से हटाने की जरूरत है। एक स्वच्छ वातावरण के साथ असीम विकास सैद्धांतिक रूप से संभव है। समस्या जीडीपी के साथ नहीं है बल्कि हम नीतियां बनाने के लिए कैसे इसका इस्तेमाल करते हैं, इसमें है। यदि अन्य सूचकांकों के साथ इसका प्रयोग किया जाता है जैसे कि मानव विकास या खुशी सूचकांक तो हम मानव कल्याण का एक बेहतर उपाय प्राप्त करेंगे।
विकास की असमानता और बाजार के बारे में चिंता करने के बजाय हमें सबके लिए अच्छे स्कूलों और अस्पतालों के जरिए अवसरों में सुधार करना चाहिए। हम नवीनतम अंतर्राष्ट्रीय फैशन को बिना सोचे-समझे अपनाने से रोकें और याद रखें कि विकास के जिस चरण में हम हैं उसमें निरंतर उच्च विकास, रोजगार और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए खुलापन समृद्धि के मुख्य मार्ग हैं।
यद्यपि प्रधानमंत्री मोदी निरंतर उच्च विकास प्रदान नहीं कर सके हैं जो कि ‘अच्छे दिन’ लाने के लिए जरूरी है, लेकिन उन्होंने इसके लिए कई आवश्यक परिस्थितियां बना दी हैं जैसे कि जीएसटी, दिवालियापन अधिनियम और व्यापार सुलभता में सुधार। इसलिए, 2019 के चुनाव में चाहे जो जीते, भारत को अगले 5-10 वर्षो में इन कदमों का अच्छा नतीजा देखने को मिलेगा, क्योंकि भारत एक बार फिर निरंतर उच्च विकास के लिए तैयार है।
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