निजी क्षेत्र की मदद से अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की तैयारी, प्रकाश बियाणी का ब्लॉग
By Prakash Biyani | Published: March 23, 2021 03:47 PM2021-03-23T15:47:41+5:302021-03-23T15:49:34+5:30
1991 में आर्थिक प्रतिबंध हटाने के साथ सरकार को समझ में आया कि सरकारी उद्योग थम गए हैं. वे सरकार पर बोझ बन गए हैं.
हमें आजादी मिली तब द्वितीय विश्वयुद्ध में तहस-नहस हो चुका जापान अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था. अमेरिका मुक्त बाजार प्रणाली से सुपर पावर बन रहा था.
आजाद भारत की पहली सरकार ने अर्थव्यवस्था पर सरकार के नियंत्नणवाला रूसी मॉडल अपनाया. राजनेता तय करने लगे कि किस उद्योग क्षेत्न में सरकार का एकाधिकार होगा और किस क्षेत्न में निजी क्षेत्न को कितनी अनुमति मिलेगी. सरकार ने संसाधन व संरक्षण उपलब्ध करवाकर सरकारी उद्योग स्थापित किए जिन्होंने लोगों को वेतन से पेंशन तक की गारंटीवाली नौकरियां दीं जो तब समय की मांग थी.
सरकार को उम्मीद थी कि सार्वजनिक क्षेत्न के उद्योग और कंपनियां ग्रोथ इंजन भी बनेंगी, पर ऐसा नहीं हुआ. जो ब्यूरोक्रेट्स इन कंपनियों के चेयरमैन और सीईओ बनाए गए वे उद्यमी नहीं थे. उन्होंने जोखिम नहीं उठाई या समय पर निर्णय नहीं लिए जिनके बिना कोई बिजनेस ग्रो नहीं होता. नौकरशाही और राजनीति के हस्तक्षेप के कारण भी सार्वजनिक क्षेत्न की कंपनियों ने अपनी क्षमता का आधा अधूरा किया.
जरूरत से ज्यादा श्रमिक/कर्मचारी के कारण सार्वजनिक क्षेत्न की कंपनियों का ओवरहेड्स बढ़ता गया. याद करें कि दूरसंचार क्षेत्न की निजी कंपनियों की स्टाफ लागत जब 3 से 5 फीसदी थी तब बीएसएनएल इस मद पर अपनी कमाई का 75 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था. इनोवेशन या आधुनिक तकनीक अपनाने में ट्रेड यूनियनें बाधा बन गईं.
आज बिना कम्प्यूटर बैंक ग्राहक सेवा ठप हो जाती है जबकि बैंकों के कम्प्यूटरीकरण का कर्मचारी यूनियनों ने जबर्दस्त विरोध किया था. यह सही है कि फिरंगियों की गुलामी से मुक्त हुआ भारत निरक्षर था. देश में तब गरीबी थी. आजादी के बाद लोगों को रोजगार चाहिए था.
सार्वजनिक क्षेत्न के उद्योगों ने इस जवाबदारी का निर्वहन किया, पर ऐसा करते हुए वे राजनेताओं और ब्यूरोक्रेसी के लिए सोने की खदान और श्रमिकों व कर्मचारियों के लिए सैरगाह बन गईं. यह सब देखकर लाइसेंस और परमिट सिस्टम से परेशान निजी क्षेत्न के उद्योगपतियों ने माइंड सेट बना लिया कि देश के आर्थिक विकास या रोजगार के अवसर पैदा करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है.
परिणाम यह हुआ कि देश को न तो समाजवादी अर्थव्यवस्था के लाभ मिले और न ही मुक्त बाजार प्रणाली के फायदे प्राप्त हुए. 1951 से 1985 के 35 सालों में सकल घरेलू उत्पादन औसतन 3.5 फीसदी ही बढ़ा. 1991 में आर्थिक प्रतिबंध हटाने के साथ सरकार को समझ में आया कि सरकारी उद्योग थम गए हैं. वे सरकार पर बोझ बन गए हैं.
निजी क्षेत्र की भागीदारी के बिना अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं होगी, इस निष्कर्ष के साथ 1992 में हवाई सेवा, 1993 में बैंकिंग उद्योग, 1999 में टेलीकम्युनिकेशन और जीवन बीमा बिजनेस नियंत्नण मुक्त हुआ. 1991-92 में ही सरकार ने नियंत्नण छोड़े बिना सरकारी उद्योगों की इक्विटी बेचने की घोषणा की और सन् 2000 तक सार्वजनिक क्षेत्न के 39 उद्योगों के विनिवेश से करीब 18300 करोड़ रु पए जुटाए. सरकार ने मुनाफाअर्जन करनेवाली ऑइल कंपनियों, गेल जैसी ब्लू चिप कंपनियों के शेयर बेचे थे पर नियंत्नण नहीं छोड़ने से उनका वाजिब मूल्य नहीं मिला.
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्न के अंडर परफॉर्मर उद्योगों के विनिवेश के साथ निजीकरण का भी निर्णय लिया. ब्रेड बनानेवाली मॉडर्न फूड पहली सरकारी कंपनी थी जिसे बेचने से सरकार को 105 करोड़ रु. मिले. इसके बाद भारत एल्युमीनियम, हिंदुस्तान जिंक, होटल कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, प्रदीप फॉस्फेट, मारुति सुजुकी, एचटीएल, इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन की बिक्री से सरकार ने 21160 करोड़ रु. जुटाए.
2004 में यूपीए सरकार के प्रधानमंत्नी डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने अपने दस साल के कार्यकाल में सार्वजनिक क्षेत्न के उद्योगों के विनिवेश से 59180 करोड़ रुपए जुटाए. 2014 में भाजपा नेतृत्ववाली मोदी सरकार बनी, पर 6 सालों (2014-15 से 2020-21) में सरकार विनिवेश से करीब 3.76 लाख करोड़ रु. जुटा पाई जबकि लक्ष्य था- 6.30 लाख करोड़ रुपए.
31 मार्च 2019 तक देश की 70 सरकारी कंपनियां घाटे में थीं. सार्वजनिक क्षेत्न के बड़े बैंकों को छोड़ दें तो किसी की बैलेंस शीट्स पाक साफ नहीं है. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्नी हैं जिन्होंने बेबाकी से कहा है कि सार्वजनिक क्षेत्न की कंपनियां देश को आत्मनिर्भर नहीं बना सकतीं, प्राइवेट सेक्टर ही ग्रोथ इंजन बनेगा.