पूंजी निवेश के जरिये उपनिवेश बनाने का चलन
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: November 11, 2018 03:26 AM2018-11-11T03:26:48+5:302018-11-11T03:26:48+5:30
पड़ोसी देशोंे की कतार में पहली बार श्रीलंका में राजनीतिक संकट के पीछे जिस तरह चीन के विस्तार को देखा जा रहा है, वह एक नए संकट की आहट भी है और संकेत भी कि अब वाकई युद्ध विश्व बाजार पर कब्जा करने के लिए पूंजी के जरिये होंगे न कि हथियारों के जरिये.
पड़ोसी देशोंे की कतार में पहली बार श्रीलंका में राजनीतिक संकट के पीछे जिस तरह चीन के विस्तार को देखा जा रहा है, वह एक नए संकट की आहट भी है और संकेत भी कि अब वाकई युद्ध विश्व बाजार पर कब्जा करने के लिए पूंजी के जरिये होंगे न कि हथियारों के जरिये. ये सवाल इसलिए क्योंकि श्रीलंका के राष्ट्रपति श्रीसेना ने प्रधानमंत्नी रानिल विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्नी पद पर नियुक्त किया, जबकि रानिल विक्रमसिंघे के पास राजपक्षे से ज्यादा सीट हैं.
और उसके बाद के घटनाक्र म में संसद को ही भंग कर नए चुनाव के ऐलान की तरफ बढ़ना पड़ा. इन हालात को सिर्फ श्रीलंका के राजनीतिक घटनाक्रम के तहत देखना अब भूल होगी. क्योंकि राष्ट्रपति श्रीसेना और राजपक्षे दोनों ही चीन के प्रोजेक्ट के कितने हिमायती हैं ये किसी से छुपा नहीं है. और जिस तरह चीन ने श्रीलंका में पूंजी के जरिये अपना विस्तार किया वह भारत के लिए नए संकट की आहट इसलिये है क्योंकि दुनिया एक बार फिर उस उपनिवेशी सोच के दायरे में लौट रही है जिसके लिए पहला विश्वयुद्ध हुआ.
दरअसल बात श्रीलंका से ही शुरू करें तो भारत और चीन दोनों ही श्रीलंका में भारी पूंजी निवेश की दौड़ लगा रहे हैं और राजनीतिक उठापटक की स्थिति श्रीलंका में तभी गहराती है जब कोलंबो पोर्ट को लेकर कैबिनेट की बैठक में भारत-जापान के साथ साझा वेंचर को खारिज कर चीन को परियोजना देने की बात होती है. तब श्रीलंका के प्रधानमंत्नी रानिल विक्रमसिंघे इसका विरोध करते हैं. उसके बाद राष्ट्रपति श्रीसेना 26 अक्तूबर को प्रधानमंत्नी रानिल को ही बर्खास्त कर चीन के हिमायती रहे राजपक्षे को प्रधानमंत्नी बना देते हैं. और मौजूदा सच तो यही है कि कोलंबो पोर्ट ही नहीं बल्किकोलंबो में करीब डेढ़ बिलियन डॉलर का निवेश कर चीन होटल, जहाज, मोटर रेसिंग ट्रैक तक बना रहा है. इसके मायने दो तरह से समङो जा सकते हैं.
पहला, इससे पहले श्रीलंका चीन के सरकारी बैंकों का कर्ज चुका नहीं पाया तो उसे हंबनटोटा बंदरगाह सौ बरस के लिए चीन के हवाले करना पड़ा और अब कोलंबो पोर्ट भी अगर उस दिशा में जा रहा है तो दूसरे हालात सामरिक संकट के हैं. क्योंकि भारत के लिए चीन उस संकट की तरह है जहां वह अपने मिलिट्री बेस का विस्तार पड़ोसी देशों में कर रहा है. कोलंबो तक अगर चीन पहुंचता है तो भारत के लिए संकट कई स्तर पर होगा. यानी श्रीलंका के राजनीतिक संकट को सिर्फ श्रीलंका के दायरे में देखना अब मूर्खतापूर्ण ही होगा. ठीक वैसे ही जैसे चीन मालदीव में घुस चुका है. नेपाल में चीन हिमालय तक सड़क के जरिये दस्तक देने को तैयार हो रहा है.
भूटान में नई वाम सोच वाली सत्ता के साथ निकटता के जरिये डोकलाम की जमीन के बदले दूसरी जमीन देने पर सहमति बनाने की दिशा में काम कर रहा है और बांग्लादेश हथियारों को लेकर चीन पर निर्भर है. इसी के समानांतर पाकिस्तान की इकोनॉमी भी अब चीन ही संभाले हुए है. दरअसल ये पूरी प्रक्रिया भारत के लिए
खतरनाक है.