जटिल को जटिलतर बनाने की कला से कैसे होगा भला ?
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: February 5, 2025 07:10 AM2025-02-05T07:10:44+5:302025-02-05T07:10:46+5:30
आज भी करोड़ों लोग किसी जानकार या सीए को ही पैसा देकर अपना आईटीआर भरवाते हैं.

जटिल को जटिलतर बनाने की कला से कैसे होगा भला ?
हेमधर शर्मा
दुनिया नियमों से चलती है. हम मनुष्य स्वभाव से तर्कशील होते हैं और माना जाता है कि हम हर चीज का तार्किक ढंग से होना पसंद करते हैं. लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही है? हाल ही में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मनभावन बजट पेश किया. इससे नौकरीपेशा वर्ग की बांछें खिल गईं क्योंकि स्टैंडर्ड डिडक्शन मिलाकर पूरे पौने तेरह लाख रु. की कमाई को टैक्समुक्त कर दिया गया है. लेकिन इससे ज्यादा कमाई होने पर चार लाख रु. से ही टैक्स लगना शुरू हो जाता है और टैक्स की जटिलताओं से पहले ही घबराने वाले आम आदमी की माथापच्ची इससे और ज्यादा बढ़ गई है.
दरअसल पौने तेरह लाख रु. सालाना कमाने वालों के लिए तो देय टैक्स शून्य है लेकिन अगर आपकी कमाई तेरह लाख पैंतालीस हजार रु. है तो आपको 2800 रु. हेल्थ एवं एजुकेशन सेस सहित कुल 72800 रु. टैक्स चुकाना पड़ेगा. इस तरह आपकी शुद्ध कमाई पौने तेरह लाख रु. कमाने वाले से भी 2800 रु. कम हो जाएगी! तो क्या आपको अपने नियोक्ता से यह कहना चाहिए कि अगर वह आपको सालाना तेरह लाख पैंतालीस हजार रु. वेतन दे रहा है तो उसे कम करके पौने तेरह लाख रु. ही दे, क्योंकि इससे नियोक्ता को भी फायदा होगा और आपके भी 2800 रु. बच जाएंगे!
सवाल यह नहीं है कि पौने तेरह लाख रु. कमाने वाले को क्यों कुछ भी टैक्स नहीं भरना पड़ेगा और तेरह लाख पैंतालीस हजार रु. कमाने वाले को क्यों इतना ज्यादा भरना पड़ेगा कि पौने तेरह लाख कमाने वाले से भी पीछे हो जाए. सवाल यह है कि अतार्किक नजर आने वाले इस कदम के पीछे तर्क क्या है? बहुत से लोग यह मानकर अपने मन को समझा लेते हैं कि सरकार में बैठे लोग बेवकूफ नहीं हैं, कुछ न कुछ सोचकर ही ऐसा प्रावधान किया होगा.
बात सही भी है. इतने बड़े देश का बजट बनाना मामूली बात नहीं है. इसके पीछे इतने बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों, चार्टर्ड एकाउंटेंटों का दिमाग लगता होगा कि उनसे इतना बड़ा अतार्किक काम होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. लेकिन इसके पीछे के तर्क के बारे में आम जनता को भी क्या नहीं बताया जाना चाहिए?
राजशाही के वे दिन गए, जब राजा का वचन ही उनका शासन हुआ करता था. तानाशाही वाले देशों में भले ही किम जोंग उन जैसे सनकियों की मनमानी चलती हो लेकिन लोकतांत्रिक देशों की जनता में अब इतनी जागरूकता आ चुकी है कि उस पर कोई भी असंगत बात थोपी नहीं जा सकती. सोशल मीडिया आज इतना सक्षम हो चुका है कि बेतुकापन दिखने पर बड़े-बड़ों को ट्रोल करने से भी नहीं चूकता.
लेकिन टैक्स कटौती का बेतुकापन तो एक साल पहले से ही चला आ रहा है, क्योंकि अभी नौकरीपेशा वर्ग को जहां पौने आठ लाख तक की आय में टैक्स शून्य है, वहीं सात लाख सत्तानवे हजार रु. कमाने वाले के हाथ में टैक्स कटौती के बाद सात लाख चौहत्तर हजार एक सौ बीस रु. ही आते हैं, अर्थात पौने आठ लाख रु. से भी कम!
फिर भी इस बारे में किसी ने कोई आवाज नहीं उठाई. तो क्या अब लोगों को अतार्किक लगने वाली बातों से भी कोई फर्क नहीं पड़ता?
वित्तीय क्षेत्र की शब्दावलियां इतनी जटिल होती हैं कि अक्सर ही आम आदमी के सिर के ऊपर से गुजर जाती हैं. इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण यह है कि आईटीआर भरने को सरकार द्वारा भरसक सरल बनाने की कोशिश के बावजूद आज भी करोड़ों लोग किसी जानकार या सीए को ही पैसा देकर अपना आईटीआर भरवाते हैं. ऐसे में इस प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से और ज्यादा जटिल बनाने की कोशिश से बचना ही क्या श्रेयस्कर नहीं होता?