उच्च मूल्य की फसलों के उत्पादन से हल होगी समस्या, भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग
By भरत झुनझुनवाला | Published: February 8, 2021 11:20 AM2021-02-08T11:20:33+5:302021-02-08T11:21:31+5:30
विश्व में कृषि उत्पादों के मूल्य निरंतर गिरते जा रहे हैं क्योंकि नई तकनीकों के माध्यम से कृषि उत्पादन में लगातार वृद्धि हो रही है, जबकि जनसंख्या में उसी अनुपात में वृद्धि न होने के कारण खाद्यान्नों की मांग में तुलना में कम वृद्धि हो रही है.
आगामी वर्ष के बजट को पेश करते समय वित्त मंत्नी ने इस बात पर जोर दिया कि बीते छह वर्षों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी जाने वाली फसलों की मात्ना में भारी वृद्धि हुई है. लेकिन साथ-साथ सरकार समर्थन मूल्य की व्यवस्था को निरस्त भी करना चाहती है. इसलिए देखना होगा कि वर्तमान व्यवस्था में क्या खामियां हैं.
पहली खामी यह है कि आज विश्व में कृषि उत्पादों के मूल्य निरंतर गिरते जा रहे हैं क्योंकि नई तकनीकों के माध्यम से कृषि उत्पादन में लगातार वृद्धि हो रही है, जबकि जनसंख्या में उसी अनुपात में वृद्धि न होने के कारण खाद्यान्नों की मांग में तुलना में कम वृद्धि हो रही है. खाद्यान्नों की सप्लाई बढ़ रही है जबकि डिमांड कम है. दाम गिरते जा रहे हैं.
उत्पादन कराए तो उस भंडार के निस्तारण की समस्या उत्पन्न हो जाती
इस परिस्थिति में यदि सरकार समर्थन मूल्य बढ़ाकर उत्तरोत्तर अधिक मात्न में खाद्यान्नों का उत्पादन कराए तो उस भंडार के निस्तारण की समस्या उत्पन्न हो जाती है. लेकिन दूसरी तरफ समर्थन मूल्य का एक उद्देश्य यह है कि देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो.
समर्थन मूल्य व्यवस्था के माध्यम से किसानों को खाद्यान्नों के उचित मूल्य निरंतर मिलते रहते हैं और वे उनका पर्याप्त उत्पादन करते रहते हैं जिसका परिणाम है कि साठ के दशक के बाद अपने देश में अकाल नहीं पड़ा है. इसलिए खाद्य सुरक्षा के लिए समर्थन मूल्य की संभवत: अनिवार्यता नहीं रह गई है.
समर्थन मूल्य व्यवस्था को हम पूर्णतया निरस्त कर देते हैं
लेकिन यदि समर्थन मूल्य व्यवस्था को हम पूर्णतया निरस्त कर देते हैं तो दो दुष्प्रभाव सामने आते हैं. एक यह कि किसानों की आय में गिरावट आएगी जिसके फलस्वरूप हम आज किसानों का आंदोलन देख रहे हैं. दूसरा यह कि देश में खाद्यान्नों के उत्पादन में भारी उतार-चढ़ाव आ सकते हैं जिसके कारण देश की खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो सकती है.
जैसे किसी वर्ष यदि गेहूं के दाम बहुत कम हो गए तो अगले वर्ष किसान गेहूं का उत्पादन कम कर देते हैं, जिससे आने वाले वर्ष में खाद्यान्न का संकट उत्पन्न हो जाता है. पहला विषय किसान की आय का है. इस दिशा में वर्ष 2016 में सरकार ने एक अंतर मंत्नालय कमेटी स्थापित की थी. कमेटी की पहली संस्तुति थी कि किसान की उत्पादकता बढ़ाई जाए.
भूमि पर 1 क्विंटल के स्थान पर 2 क्विंटल गेहूं उत्पादित करे
सहज समझ आता है कि यदि किसान किसी भूमि पर 1 क्विंटल के स्थान पर 2 क्विंटल गेहूं उत्पादित करे तो उसकी आय सहज ही 2 हजार रुपए से बढ़कर 4 हजार रुपए हो जाएगी. लेकिन यह तब होगा जब गेहूं का दाम 20 रुपया प्रति किलो बना रहे. जब उत्पादन अधिक हो जाता है तो कृषि उत्पादों के दाम में भारी गिरावट आती है.
समिति ने इस बात को नजरअंदाज किया है कि उत्पादकता बढ़ाने मात्न से किसान की आय नहीं बढ़ जाती है. उसके साथ दाम को भी बढ़ाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. परंतु यदि दाम को समर्थन मूल्य के दाम के माध्यम से बढ़ा कर रखा जाता है तो जैसा ऊपर बताया गया है कि खाद्यान्न के भंडारण और निस्तारण की समस्या सामने आ जाती है. इसलिए कमेटी नाकाम है.
कीमत की फसलों के उत्पादन की तरफ प्रेरित करना चाहिए
सरकार को किसान को उच्च कीमत की फसलों के उत्पादन की तरफ प्रेरित करना चाहिए. आज अफ्रीका के ट्यूनीशिया देश में जैतून, ब्राजील में काफी और हेजल नट, अमेरिका में अखरोट और सेब, फ्रांस में अंगूर, नीदरलैंड्स में ट्यूलिप, मलेशिया में रबड़ - इस प्रकार की विशेष फसलों के उत्पादन से इन देशों ने विश्व बाजार में अपना स्थान बनाया है
हमने भी भुसावल में केले, नासिक में प्याज, जोधपुर में लाल मिर्च और असम में अनानास आदि फसलों के उत्पादन में विशेष उत्कृष्टता हासिल की है. अपना देश जलवायु की दृष्टि से संपन्न है. हर क्षेत्न के अनुकूल जो उच्च कीमत की फसलें उत्पादित हो सकती हैं उनका अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता के मानकों के अनुसार उत्पादन कराकर निर्यात की व्यवस्था करनी चाहिए.