भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग: ज्यादा नोट छापने के खतरे भी हैं ज्यादा
By भरत झुनझुनवाला | Published: March 24, 2019 08:38 AM2019-03-24T08:38:57+5:302019-03-24T08:42:17+5:30
वित्तीय नीति की विशेषता यह होती है कि इसका प्रभाव सीधे वर्ग विशेष पर और तत्काल पड़ता है.
सरकार की आर्थिक नीतियों के दो हिस्से होते हैं--वित्तीय एवं मौद्रिक. वित्तीय नीतियों में सरकार द्वारा वसूल किए गए टैक्स और किए गए खर्च गिने जाते हैं. जैसे सरकार ने यदि इनकम टैक्स अथवा जीएसटी की दर में परिवर्तन किया अथवा मनरेगा या रक्षा खर्चो को बढ़ाया या घटाया तो ये परिवर्तन वित्तीय नीति में गिने जाते हैं. वित्तीय नीति की विशेषता यह होती है कि इसका प्रभाव सीधे वर्ग विशेष पर और तत्काल पड़ता है. जैसे यदि कपड़े पर जीएसटी की दर बढ़ा दी जाए तो उपभोक्ता को अगले दिन से ही महंगा कपड़ा खरीदना होगा. अथवा यदि इनकम टैक्स की दर कम कर दी जाए तो करदाता को इसी वर्ष कम टैक्स अदा करना होगा.
दूसरा हिस्सा मुद्रा नीति होती है. इसमें ब्याज दर का निर्धारण एवं नोट छापना शामिल होता है. ब्याज दर और नोट छापने का आपसी संबंध होता है. जैसे यदि रिजर्व बैंक ब्याज दर कम कर दे तो लोगों द्वारा ऋ ण अधिक लिए जाते हैं जिसकी पूर्ति के लिए रिजर्व बैंक बड़ी मात्ना में नोट छापता है. मुद्रा नीति का प्रभाव सर्वव्यापी एवं देर से पड़ता है. जैसे यदि आज रिजर्व बैंक ने ब्याज दर कम किए तो लोगों द्वारा कम ब्याज दर की लालच में ऋ ण लेने में कुछ समय लगता है. और जब लोगों द्वारा ऋ ण लिए जाते हैं तब ही रिजर्व बैंक द्वारा नोट छापे जाते हैं और अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ती है.
ऋण की मांग बढ़ने के बाद नोट छापने में और समय लगता है. इसके बाद नोटों को छापने का महंगाई पर असर आने में और समय लगता है. जैसे यदि आज अर्थव्यवस्था में सौ किलो गेहूं उपलब्ध है और दो हजार रु. की मुद्रा है तो गेहूं का दाम 20 रु. प्रति किलो होगा. यदि सरकार ने नोट छापे और मुद्रा की मात्ना 2000 से बढ़ा कर 2200 रु. कर दी तो महंगाई बढ़ेगी चूंकि उसी सौ किलो गेहूं के पीछे आज 2000 के स्थान पर 2200 रुपए दौड़ रहे होंगे. लेकिन इस पूरे चक्र के संपादन के कारण गेहूं के दाम में वृद्धि होने में समय लगेगा.
इसके अलावा मुद्रा नीति का प्रभाव देश के सभी नागरिकों पर समान पड़ता है. महंगाई बढ़ती है तो सभी की क्रय शक्ति का ह्रास होता है, तदनुसार उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से अधिक मात्ना में टैक्स देना पड़ता है. महंगाई बढ़ने से यदि आपको 100 रु. में 5 के स्थान पर 4 किलो गेहूं मिला तो समङिाए कि एक किलो गेहूं आपने टैक्स के रूप में दे दिया.
वैश्विक स्तर पर पाया गया है कि सरकारों के द्वारा चुनावों के पूर्व मुद्रा नीति का दुरुपयोग करने की संभावना रहती है. मुद्रा नीति के नर्म होने यानी ब्याज दर कम होने से लोगों के द्वारा ऋण पहले लिया जाता है जबकि महंगाई पर उसका असर कुछ समय बाद दिखता है. इसलिए सरकारें चाहती हैं कि चुनाव के पहले मुद्रा नीति को नरम कर दिया जाए जिससे लोग ऋ ण लें और उन्हें चुनाव जीतने में सहूलियत हो.
इस नर्म मुद्रा नीति का दुष्प्रभाव बाद में पड़ता है जिस समय तक चुनाव पूरे हो चुके होते हैं. इसलिए विश्व के तमाम देशों में मुद्रा नीति को सरकार के सीधे अधिकारों से बाहर कर दिया गया है. अमेरिका में फेडरल रिजर्व बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति 14 वर्ष के कार्यकाल के लिए होती है और सरकार को इन्हें हटाने का अधिकार नहीं होता है. इंग्लैंड के बैंक ऑफ इंग्लैंड को पूर्ण स्वायत्तता है कि वह कितने नोट छापेगा. यूरोप के केंद्रीय बैंक यूरोपियन सेंट्रल बैंक के सदस्यों में देशों की सरकारों का एक भी प्रतिनिधि नहीं होता है.
सदस्य देशों के केंद्रीय बैंकों के प्रमुख को व्यक्तिगत रूप से सेंट्रल बैंक का सदस्य बनाया जाता है. इन प्रावधानों का उद्देश्य यह है कि सरकार द्वारा मुद्रा नीति का चुनाव के लिए दुरुपयोग न किया जाए जिससे दीर्घ काल में देश की हानि न हो. इसलिए इन देशों की सरकारों ने निर्णय लिया कि चुनावी राजनीति से उठकर मुद्रा नीति को स्वायत्त केंद्रीय बैंक को सौंप दिया जाए.
इस अंतर्राष्ट्रीय मान्यता के विपरीत वर्तमान सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता को कम करने का प्रयास किया है. पूर्व में रिजर्व बैंक स्वयं तय करता था कि ब्याज दर क्या होगी और तदनुसार नोट कितने छापे जाएंगे. अब सरकार ने मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी बनाई है जिसमें तीन सदस्य सरकार द्वारा नामित हैं और तीन सदस्य रिजर्व बैंक के अधिकारी होते हैं.
इस प्रकार मुद्रा नीति को निर्धारित करने में सरकार का सीधा दखल हो गया है. इसी क्रम में सरकार द्वारा वर्तमान में रिजर्व बैंक पर दबाव डाला जा रहा है कि ब्याज दरों को कम किया जाए और अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ाई जाए जिससे कि अर्थव्यवस्था को गति मिले. इस नरम नीति के दुष्प्रभाव चुनाव के बाद में होंगे.
जब अर्थव्यवस्था मूलत: कमजोर हो तो वित्तीय अथवा मुद्रा नीति दोनों ही असफल हो जाती हैं. ऐसी परिस्थिति में रिजर्व बैंक को ब्याज दर घटाने और नोट छापने से बचना चाहिए.